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________________ ( 12 ) वचनमुच्यते।"पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते।' इसी प्रकार वाक्पतिराज (८वीं शताब्दी ) ने भी अपने गउडवहो नामक महाकाव्य में समुद्र के समान प्राकृत से संस्कृत आदि समस्त भाषाओं को जन्य बतलाया है-- 'सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुह चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइं ॥ ९३ ॥ "प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म। तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादय इति मन्यते स्म कविः”। राजशेखर ( ९वीं शताब्दी ) ने भी प्राकृत को संस्कृत की योनिविकासस्थान कहा है ।' इस सिद्धान्त के अनुसार प्राकृत की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जायेगी (i) प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम् । (ii) प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम् । (iii) प्राक् कृतं प्राकृतम् । इन व्युत्पत्तियों से प्राकृत वैदिक भाषा की भी जनक सिद्ध होती है। उपयुक्त विवेचनों से स्पष्ट है कि (i) संस्कृत के माध्यम से प्राकृत की व्याख्या की गई है। (ii) प्राकृत का अनुशासन संस्कृत के बाद होने से उसे ही प्राकृत की योनि बतलाया गया है। (ii) उस समय जनसामान्य की प्राकृत भाषा और सभ्य समाज की संस्कृत भाषा में पर्याप्त अन्तर हो गया था और परस्पर एक दूसरे की भाषा को समझने में कठिनाई होती थी। अतः जब प्राकृत का भी साहित्य बना तो उसका भी अनुशासन किया गया। सभ्य समाज संस्कृत से सुपरिचित था, अतः संस्कृत के माध्यम से ही प्राकृत का व्याकरण लिखा गया। (iv) प्राकृत में संस्कृत के शब्दों की बहुलता होने पर भी प्राकृत की प्रवृत्ति छान्दस् से अधिक साम्य रखती है। (v) जहाँ प्राकृत को संस्कृत का जनक माना गया है। वहाँ प्राकृत से 'जनभाषा' अर्थ लिया गया है। साहित्यिक प्राकृत कथमपि संस्कृत की जनक नहीं रही है। अर्धमागधी को भी संस्कृत का जनक मानना (१) स्याद्योनिः किल संस्कृतस्य सुदशां जिह्वासु यन्मोदते-बालरामायण, ४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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