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नववाँ अध्याय ।
। ८९ कारणोंके मिलाने के लिये उपाय सोचते हैं परन्तु जो मनुष्य बुद्धिमान हैं अपनी आत्माको सुखी बनाना चाहते हैं, वे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये ही कार्य करते हैं ।।
__ भावार्थः - संसारमें जीव भिन्न-भिन्न प्रकृतियोंके हैं । कोई मनुष्य संसार में कीर्ति लाभ करना ही अच्छा समझते हैं, बहुतसे परको प्रसन्न करनेसे ही अपनेको सुखी मानते हैं, अनेक इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रसन्न रहते हैं, कोई कोई अपने जीवनकी रक्षा, संतानकी उत्पत्ति और परिग्रहकी एकत्रता करना ही अच्छा समझते हैं, बहुतसे ज्ञान-दर्शन आदि अन्य पदार्थोंको प्राप्ति और रोगके दूर करनेके लिये ही चिता करते रहते हैं तथा इनकी प्राप्तिके उपाय और उनके अनुकूल कार्य ही किया करते हैं; परन्तु ऐसे मनुष्य संसार में उत्तम नहीं गिने जाते । मोहके जाल में जकड़े हुये कहे जाते हैं; किन्तु जो बुद्धिमान मनुष्य शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये कार्य करते हैं और उसकी प्राप्तिके उपायोंको सोचते हैं वे प्रशंस्य गिने जाते हैं ।। ९ ।। कल्पेशनागेशनरेशसंभवं चित्ते सुखं मे सततं तृणायते । कुस्त्रीरमास्थानकदेहदेहजात् सदेतिचित्रं मनुतेऽल्पधीः सुखं ॥ १० ॥
अर्थः-मैंने शुद्धचिद्रूपके स्वरूपको भले प्रकार जान लिया है, इसलिये मेरे चित्तमें देवेन्द्र, नागेन्द्र और नरेन्द्रोंके सुख जीर्णतृण एरीखे जान पड़ते हैं; परन्तु जो मनुष्य अल्पज्ञानी हैं अपने और परके स्वरूपका भले प्रकार ज्ञान नहीं रखते वे निदित स्त्रियां, लक्ष्मी, घर, शरोर और पुत्रसे उत्पन्न हुये सुखको जो कि दुःख स्वरूप हैं, सुख मानते हैं यह बड़ा आश्चर्य है. ।। १० ।। ..त. १२
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