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________________ ८८ ] दुर्गंधं मलभाजनं कुविधिना निष्पादितं धातुभिरंग तस्य जनैर्निजार्थमखिलैराख्या घृता स्वेच्छया । तस्याः किं मम वर्णनेन सततं किं निंदनेनैव च चिद्रपस्य शरीरकर्मजनिताऽन्यस्याप्यहो तत्त्वतः ॥ ८ ॥ [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थः -- यह शरीर दुर्गन्धमय है । विष्टा मूत्र आदि मलोंका घर है । निंदित कर्मकी कृपासे मल, मज्जा आदि धातुओंसे बना हुआ है। तथापि मूढ़ मनुष्योंने अपने स्वार्थ की पुष्टिके लिये इच्छानुसार इसकी प्रशंसा की है; परन्तु मुझे इस शरीर की प्रशंसा और निंदासे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि मैं निश्चयनयसे शरीर, कर्म और उनसे उत्पन्न हुये विकारोंसे रहित शुद्धचिद्रूप स्वरूप हूँ । भावार्थ:- यदि यह शरीर मेरा और मेरे समान होता तो तुझे इसकी प्रशंसा - निन्दा करनी पड़ती सो तो है नहीं; क्योंकि यह महा अपवित्र है, जड़ है और में शुद्धचिद्रूप हूँ, इसलिये कभी भी इसकी मेरे साथ तुलना नहीं हो सकती, इसलिये तुझे इसकी प्रशंसा और निन्दासे कोई लाभ नहीं ॥। ८ । कीर्ति वा पररंजनं खविषयं केचिन्निजं जीवितं संतानं च परिग्रहं भयमपि ज्ञानं तथा दर्शनं । अन्यस्याखिलवस्तुनो रुगयुतिं तद्धेतुमुद्दिश्य च कर्युः कर्म विमोहिनो हि सुधियश्चिद्रूपलब्ध्यै परं ॥ ९ ॥ अर्थ:-संसार में बहुत से मोही पुरुष कीर्ति के लिये काम करते हैं, अनेक दूसर रोंको प्रसन्न करने के करने के लिये, इन्द्रियोंके विषयोंकी प्राप्ति के लिये, अपने जीवनकी रक्षाके लिये, संतान, परिग्रह, भय, ज्ञान, दर्शन तथा अन्य पदार्थोकी प्राप्ति और रोगके अभाव के लिये काम करते हैं और बहुतसे कीर्ति आदिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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