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________________ नवमाँ अध्याय ] विचार करना जो पहिले मोह बतला आये हैं उस मोहका नाश व्यवहारनयकी अपेक्षा बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रहके त्यागसे तप आदिके आचरण करनेसे होता है और निश्चयनयसे “ मैं शुद्धचिद्रूप हूँ" आदि विचार करनेसे ही वह समूल नष्ट हो जाता है ।। ६ ।। धर्मोद्धारविनाशनादि कुरुते कालो यथा रोचते स्वस्यान्यस्य सुखासुखं वरखजं कमैव पूर्वार्जितं । अन्ये येऽपि यथैव संति हि तथैवार्थाश्च तिष्ठति ते तच्चितामिति मा विधेहि कुरु ते शुद्धात्मनश्चिंतनं ॥ ७ ॥ अर्थ:-कालके अनुसार धर्मका उद्धार व विनाश होता है; पहिलेका उपार्जन किया हुआ कर्म ही इन्द्रियोंके उत्तमोत्तम सुख और नाना प्रकार के क्लेश हैं । जो अन्य पदार्थ भी जैसे और जिस रीतिसे हैं वे उसी रीतिसे विद्यमान हैं, इसलिये हे आत्मन् ! तू उनके लिये किसी बातकी चिता न कर, अपने शुद्धचिद्रूपकी ओर ध्यान दे । भावार्थ:-जो पदार्थ जैसा है वह उसी रूपसे है । वास्तविक दृष्टिसे रत्तीभर भी उसमें हेर फेर नहीं हो सकता । देखो ! कालके अनुसार धर्मका उद्धार व विनाश होता है पहिले उपार्जन किये कर्म ही संसार में सुख-दुःख है और भी जो पदार्थ जिस म्पस हैं वे उसी रूपसे स्थित हैं, तब उनके विषयमें चिन्ता करना व्यर्थ है, इसलिये आत्माको चाहिये कि वह समस्त प्रकारकी चिन्ताओंका परित्याग कर अपने शुद्धचिद्रूपका ही चिन्तन करे। उसीके चिन्तनसे उसका कल्याण हो सकता है ।। ६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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