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[ तत्वज्ञान तरंगिणी
कैसे सुखी होऊँ ?
अर्थः - मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? किसका सहारा लूँ ? और क्या कहूं ? इस प्रकारका विचार करना भी मोह है ।। ३ ।।
चेतनाचेतने रागो द्वेषो मिथ्यामतिर्मम | मोहरूपमिदं सर्वचिद्रपोऽहं हि केवलः ॥ ४ ॥
अर्थ: - ये जो संसार में चेतन-अचेतनरूप पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं वे मेरे हैं या दूसरेके हैं, इस प्रकार राग और द्वेषरूप विचार करना मिथ्या है; क्योंकि ये सब मोहस्वरूप हैं और मेरा स्वरूप शुद्धचिद्रूप है, इसलिये ये मेरे कभी नहीं हो सकते ।। ४ ।।
देहोऽहं मे स वा कर्मोदयोऽहं वाप्यसौ मम । कलत्रादिरहं वा मे मोहोऽदश्चिंतनं किल ॥ ५ ॥ अर्थः- मैं शरीरस्वरूप हूँ और शरीर मेरा है, मैं कर्मका उदयस्वरूप हूं और कर्मका उदय मेरा है, मैं स्त्री पुत्र आदि स्वरूप हूँ और स्त्री पुत्र आदि मेरे हैं, इस प्रकारका विचार करना भी सर्वथा मोह है - देह आदिमें मोहके होनेसे ही ऐसे विकल्प होते हैं ।। ५ ।।
तज्जये व्यवहारेण संत्युपाया अनेकशः । निश्चयेनेति मे शुद्धचिद्रपोऽहं स चितनं ॥ ६ ॥
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अर्थ : - व्यवहारनयसे इस उपर्युक्त मोहके नाश करनेके लिये बहुत से उपाय हैं, निश्चयनयसे "मैं शुद्धचिद्रूप हूँ " वही मेरा है" ऐसा विचार करने मात्रसे ही इसका सर्वथा नाश हो जाता है
भावार्थ:- यह मेरा है, यह स्वरूप हूँ और शरीर आदि मेरे
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तेरा है, मैं शरीर आदि स्वरूप हैं, इस
प्रकारका
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