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________________ नवमाँ अध्याय शुद्धचिद्रपके ध्यानके लिये मोहत्यागकी उपयोगिता अन्यदीया मदीयाश्च पदार्थाश्चेतनेतराः । एतेऽदचिंतनं मोहो यतः किंचिन्न कस्यचित् ॥१॥ अर्थ:-ये चेतन और जड़ पदार्थ पराये और अपने हैं इस प्रकारका चितवन मोह है; क्योंकि यदि वास्तवमें देखा जाय तो कोई पदार्थ किसीका नहीं है । भावार्थ:-सिवाय शुद्धचिद्रूपके संसार में कोई पदार्थ अपना नहीं, इसलिये स्त्री, पुत्र आदि चेतन, धन-माल-खजाना आदि अचेतन पदार्थों में अपने मनका संकल्प-विकल्प करना मोह है ।। १ ।। दत्तो मानोऽपमानो मे जल्पिता कीर्तिरुज्ज्वला । अनुज्ज्वलापकीतिर्वा मोदस्तेनेति चिंतनं ॥ २ ॥ अर्थः-इसने मेरा आदर सत्कार किया, इसने मेरा अपमान अनादर किया, इसने मेरी उज्ज्वल कीति फैलाई और इसने मेरी अपकीत्ति फैलाई, इस प्रकारका विचार मनमें लाना ही मोह है । भावार्थ:-यदि वास्तवमें देखा जाय तो किसका आदर? किसका अनादर ? किसकी कीति ? और किसकी अपकीत्ति ? सब बातें मिथ्या हैं; परन्तु मोहसे मूढ़ यह प्राणी आदर अनादरका विचार करने लग जाता है, इसलिये उसका इस प्रकारका विचार करना प्रबल मोह है ।। २ ।। किं करोमि क्व यामीदं क्व लभेय सुखं कुतः ।। किमाश्रयामि किं वच्मि मोहचिंतनमीदृशं ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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