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न बद्धः परमार्थेन बद्धो मोहवशाद् गृहा । शुक्रवद् भीमपाशेनाथवा मर्कटमुष्टिवत् ॥ ११ ॥
[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी
अर्थः- शुकको भय करानेवाले पाशके समान अथवा बंदरकी मुठ्ठी के समान यद्यपि यह जोव वास्तविक दृष्टि से कर्मोंसे सम्बद्ध नहीं है तथापि मोहसे बँधा ही हुआ है ।
भावार्थ:- जिस प्रकार नलिंगी पर लटकता हुआ शुक यद्यपि पाशसे बँधा हुआ नहीं रहता तथापि वह अपनेको पाशसे बँधा हुआ मानता है और अपनी सुध-बुधको भूलकर उसको छोड़ना नहीं चाहता — लटकता ही रहता है तथा बंदर जब चनोंके लिये घड़े में हाथ डालता है और चनोंकी मुठ्ठी बँध जानेसे जब घड़ेसे हाथ नहीं निकलता तो समझता है कि मुझे घड़ेने पकड़ लिया है । उसी प्रकार यदि परमार्थसे देखा जाय तो यह जीव किसी प्रकारके कर्मोंसे बँधा हुआ नहीं है तथापि व्यवहारसे यह मोहके गाढ़ बंधन में जकड़ा हुआ ही है ।। ११ ।।
श्रद्धानां पुस्तकानां जिनभवनमठांतेनिवास्यादिकानां कीर्ते रक्षार्थकानां भुवि झटिति जनो रक्षणे व्यग्रचितः । यस्तस्य क्वात्मचिता क्व च विशदमतिः शुद्धचिद्रपकाप्तिः क्व स्यात्सौख्यं निजोत्थं क्व च मनसि विचित्येति कुर्वतु यत्नं ॥ १२ ॥
धर्मकार्य,
अर्थ : - यह संसारी जीव, नाना प्रकार के पुस्तकें, जिनेन्द्र भगवान के मन्दिर, मठ, छात्र और कीत्तिकी रक्षा करनेके लिये सदा व्यग्रचित रहता है-उन कार्योसे रंचमात्र भी इसे अवकाश नहीं मिलता, इसलिये न यह किसी प्रकारका आत्मध्यान कर सकता, न इसकी बुद्धि निर्मल रह
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