SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ अध्याय ] [७१ अवलंबन किया है; क्योंकि बिना कारणके कार्य कदापि नहीं हो सकता । व्यवहारनय कारण है और निश्चयनय कार्य है इसलिये विना व्यवहारके निश्चय भी कदापि नहीं हो सकता ।।१६-१७।।। जिनागमे प्रतीतिः स्यान्जिनस्याचरणेऽपि च । निश्चयं व्यवहारं तन्नयं भज यथाविधि ॥ १८ ।। अर्थ :-व्यवहार और निश्चयनयका जैसा स्वरूप बतलाया है उसीप्रकार उसे जानकर उनका इस रीतिमें अवलंबन करना चाहिये जिससे कि जैन शास्त्रोंमें विश्वास और भगवान जिनेन्द्रसे उक्त चारित्रमें भक्ति बनी रहे ।।१८।। व्यवहारं विना केचिन्नष्टा केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् केवलव्यवहारतः ॥१९॥ अर्थ :-अनेक मनुष्य तो संसारमें व्यवहारका सर्वथा परित्याग कर केवल शुद्धनिश्चयनयके अवलंबनसे नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं और बहुतसे निश्चयनयको छोड़कर केवल व्यवहारका ही अवलंबन कर नष्ट हो जाते हैं । भावार्थ :--संसारमें प्राणियोंकी रुचि भिन्न-भिन्न रूपसे होती है । बहुतसे मनुष्य तो केवल शुद्धनिश्चयावलंबी हो मनमें यह दृढ़ संकल्प कर कि हमारी आत्मा सिद्ध-शुद्ध है, वह भला-बुरा कुछ नहीं करता, जो कुछ करता है सो जड़ शरीर ही करता है और उससे हमें कोई सम्बन्ध नहीं, भ्रष्ट हो जाते हैं और चारित्रको सर्वथा जलांजलि दे उन्मार्गगामी बन नाना प्रकारके अत्याचार करने लग जाते हैं तथा अनेक मनुष्य केवल व्यवहारनयका ही अवलंबन कर क्रियाकाण्डोंमें उलझे रह जाते हैं और निश्चयनयकी ओर झांककर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy