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________________ ७० ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी आरुह्य शुद्धचिद्रूप ध्यानपर्वतमुत्तमं । तिष्ठेद् यावत्यजेत्तावद् व्यवहारावलंबनं ॥ १४ ॥ अर्थ :-विद्वान मनुष्य जब तक शुद्धचिद्रूपके ध्यानरूपी विशाल पर्वत पर आरोहण करता है तब तक तो व्यवहारनयका अवलंबन करता है; परन्तु ज्यों ही शुद्धचिद्रूपके ध्यानरूपी विशाल पर्वत पर चढ़कर वह निश्चल रूपसे विराजमान हो जाता है, उसी समय व्यवहारनयका सहारा छोड़ देता है। भावार्थ:-जब तक शुद्धचिद्रूपका ध्यान करे तब तक व्यवहारनयका सहारा रखे; किन्तु जिस समय उसके ध्यानमें पूर्णरूपसे लीन हो जाय-चल विचल परिणाम होनेका भय न रहे, उस समय व्यवहारनयका सहारा छोड़ दे ।। १३-१४ ।। शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानपर्वतादवरोहणं । यदान्यकृतये कुर्यात्तदा तस्यावलंबनं ।। १५ ॥ अर्थ :–यदि कदाचित् किसी अन्य प्रयोजनके लिये शुद्ध चिद्रूपके निश्चल ध्यानरूपो पर्वतसे उतरना हो जाय, ध्यान करना छोड़ना पड़े तो उस समय भी व्यवहारनयका अवलंबन रखें ।। १५ ।। याता यांति च यास्यति ये भव्या मुक्तिसंपदं । आलंब्य व्यवद्दारं ते पूर्व पश्चाच्चनिश्चयं ॥ १६ ॥ कारणेन विना कार्य न स्यात्तेन विना नयं । व्यवहारं कदोत्पत्तिनिश्चयस्य न जायते ॥ १७ ॥ अर्थ :-जो महानुभाव मोक्षरूपी संपत्तिको प्राप्त हो गये, हो रहे हैं और होवेंगे उन सबने पहिले व्यवहारनयका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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