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________________ [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी भी नहीं देखते, इसलिये मोक्षके पात्र न होनेसे वे भी भ्रष्ट हो जाते हैं ।।१९॥ द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग्द्रव्यावलोकनं । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥२०॥ अर्थ :-जिस प्रकार एक नेत्रसे भले प्रकारसे पदार्थोंका अवलोकन नहीं होता दोनों ही नेत्रोंसे पदार्थ भले प्रकार दिख सकते हैं, उसीप्रकार एक नयसे कभी कार्य नहीं चल सकता । व्यवहार और निश्चय दोनों नयोंसे ही निर्दोषरूपसे कार्य हो सकता है ऐसा स्याद्वाद मतके धुरंधर विद्वानोंका मत है ॥२०॥ निश्चयं क्वचिदालंब्य व्यवहार क्वचिन्त्रयं । विधिना वर्तते प्राणी जिनवाणीविभूपितः ॥२१॥ अर्थ :-जो जीव भगवान जिनेन्द्रकी वाणीसे भूषित हैं, उनके वचनों पर पूर्णरूपसे श्रद्धान रखनेवाले हैं वे कहीं व्यवहारन यसे काम चलाते हैं और कहीं निश्चयन यका सहारा लेते हैं । अर्थात् जहां जैसा अवसर देखते हैं वहां वैसा ही उसी नयको आश्रयकर कार्य करते हैं ।।२१।। व्यवहाराद्वहिः कार्य कुर्याद्विधिनियोजितं । निश्चयं चांतरं धृत्वा तत्त्वेदी सुनिश्चलं ॥२२॥ अर्थ :--जो महानुभाव तत्त्वज्ञानी हैं । भलेप्रकार तत्त्वों के जानकार हैं । वे अन्तरंगमें भले प्रकार निश्चयनयको धारण कर व्यवहारनयसे अवसर देखकर बाह्य में कार्यका संपादन करते हैं । अर्थात् दोनों नयोंको काममें लाते हैं, एक नयसे कोई काम नहीं करते ।।२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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