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________________ सातवाँ अध्याय ] [ ६७ और मन आदिकी आवश्यकता पड़ती है, इसलिये वह पराधीन है । शुभ-अशुभ दोनों प्रकारके कर्म भी व्यवहारनय के अबलंबन से ही आते हैं । अत्यन्त विषम हैं । उसके अनुयायी पुरुषोंको नानाप्रकारके भय और आशाओंसे उत्पन्न दुःख भोगने पड़ते हैं और भ्रान्त होना पड़ता है; परन्तु शुद्ध निश्चयनयरूप मार्गमें गमन करनेसे चिन्ता, क्लेश आदि नहीं भोगने पड़ते, वह स्वाधीन है—उसमें शरीर आदिकी आवश्यकता नहीं पड़ती । उसके अवलंबन से किसी प्रकारके कर्मका भी आस्रव नहीं होता ! वह विकट, भय और आशाजन्य दुःख भी नहीं भुगाता एवं व्यामुग्ध भी नहीं करता, इसप्रकार भी दोनों लोकमें सुख देनेवाला और निर्दोष है, इसलिये ऐसे व्यवहार मार्गका त्याग कर सर्वोत्तम निश्चय मार्गसे ही गमन करना चाहिये ॥ ५ ॥ न भक्तवृंदेर्न च शिष्यवर्गैर्न पुस्तकाद्यैर्न च देहमुख्यैः । न कर्मणा न ममाहित कार्य विशुद्धचित्यस्तु लयः सदैव ॥ ६ ॥ अर्थ :- मेरा मन शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति के लिये उत्सुक है, इसलिये न तो संसार में मुझे भक्तोंकी आवश्यक्ता है, न शिष्यवर्ग, पुस्तक, देह आदिसे ही कुछ प्रयोजन है एवं न मुझे कोई काम करना ही अभीष्ट है । केवल मेरी यही कामना है कि मेरी परिणति सदा शुद्धचिद्रूपमें ही लीन रहे । सिवाय शुद्धचिद्रूपके, बाह्य किसी पदार्थमें जरा भी न जाय ||६|| न चेतसा स्पर्शमहं करोमि सचेतनाचेतनवस्तुजाते । विमुच्य शुद्धं हि निजात्मतत्त्वं क्वचित्कदाचित्कथमप्यवश्यं ||७|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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