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________________ ६८ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थ :-मेरी यह कामना है कि शुद्धचिद्रूप नामक पदार्थकी छोड़कर मैं किसी भी चेतन या अचेतन पदार्थका किसी देश और किसी कालमें कभी भी अपने मनसे स्पर्श न करूं । भावार्थ :-मैं जब किसी पदार्थका चितवन करूं तो शुद्धचिद्रूपका ही करूं । शुद्धचिद्रूपसे अतिरिक्त किसी पदार्थका चाहे वह चेतन-अचेतन कैसा भी हो, कभी किसी काल में भी न करूं ।।७।। व्यवहारं समालंब्य येऽक्षि कुर्वन्ति निश्चये । शुद्धचिद्रपसंप्राप्तिस्तेषामवतरस्य न ॥ ८ ॥ अर्थ :-व्यवहारनयका अवलंबन कर जो महानुभाव अपनी दृष्टिको शुद्धनिश्चयनयकी ओर लगाते हैं, उन्हें ही संसारमें शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति होती है । अन्य मनुष्योंको शुद्धचिद्रूपका लाभ कदापि नहीं हो सकता ।।८।। संपर्कात् कर्मणोऽशुद्धं मलस्य वसनं यथा । व्यवहारेण चिद्रूपं शुद्धं तनिश्चयाश्रयात् ॥ ९ ॥ अर्थ :-जिस प्रकार निर्मल वस्त्र भी मैलसे मलिनअशुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार व्यवहारनयसे कर्मके संबंधसे शुद्धचिद्रूप भी अशुद्ध है; परन्तु शद्धनिश्चयनयकी दृष्टिसे वह शुद्ध ही है ।।९।। अशुद्धं कथ्यते स्वर्णमन्यद्रव्येण मिश्रितं । व्यवहारं समाश्रित्य शुद्धं निश्चयतो यथा ॥ १० ॥ युक्तं तथाऽन्यद्रव्येणाशुद्धं चिद्रपमुच्यते । व्यवहारनयात् शुद्धं निश्चयात् पुनरेव तत् ॥ ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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