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________________ ६६ ] [ तवज्ञान तरंगिणी जाता है वैसा हो वैसा चिद्रूप भी विशुद्ध होता चला जाता है-बिना मिथ्यात्व आदि मलोंके नाश किये चिद्रूप कभी विशुद्ध नहीं हो सकता ।। ३ ।। मोक्षस्वर्गार्थिनां पुंसां तात्त्विकव्यवहारिणां । पंथाः पृथक् पृथक् रूयो नागरागारिणामिव ॥ ४ ।। अर्थ :-जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नगरके जाने वाले पथिकोंके मार्ग भिन्न-भिन्न होते हैं, उसीप्रकार मोक्षके इच्छुक तात्त्विक पुरुषोंका व स्वर्गके इच्छुक अतात्त्विक पुरुषोंका मार्ग भिन्न-भिन्न है ।।४।। चिंताक्लेशकषायशोकबहुले देहादिसाध्यात्पराधीने कर्मनिबंधनेऽतिविषमे मार्गे भयाशान्विते । व्यामोहे व्यवहारनामनि गति हित्वा वज्रात्मन् सदा शुद्धे निश्चयनामनीह सुखदेऽमुत्रापि दोषोज्झिते ॥ ५ ॥ अर्थ :-हे आत्मन् ! यह व्यवहार मार्ग चिन्ता, क्लेश, कषाय और शोकसे जटिल है । देह आदि द्वारा साध्य होनेसे पराधीन है । कर्मोके लाने में कारण है । अत्यन्त विकट, भय और आशासे व्याप्त है और व्यामोह करानेवाला है; परन्तु शुद्धनिश्चयनयरूप मार्ग में यह कोई विपत्ति नहीं है, इसलिये तू व्यवहारनयको त्यागकर शुद्धनिश्चयनयरूप मार्गका अवलंबन कर; क्योंकि यह इस लोककी क्या बात ? परलोक में भी सुखका देनेवाला है और समस्त दोषोंसे रहित निर्दोष है । भावार्थ :-व्यवहारनयरूप मार्गमें गमन करनेसे नाना प्रकारकी चिताओंका भांति भांतिके क्लेश, कपाय और शोकोंका सामना करना पड़ता है । उसमें देह, इन्द्रियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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