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सातवाँ अध्याय
शुद्धचिपके स्मरणमें नयोंके अवलम्बनका वर्णन
न यामि शुद्धचिपे लयं यावदहं दृढं । न मुंचामि क्षणं तावद् व्यवहारावलंबनं ॥ १ ॥ अर्थः- जब तक मैं दृढ़रूपसे शुद्धचिद्रूपमें लीन न हो जाऊं तब तक मैं व्यवहारनयका सहारा नहीं छोडूं । अशुद्धं किल चिद्रपं लोके सर्वत्र दृश्यते ।
व्यवहारनयं श्रित्वा शुद्धं बोधदृशा क्वचित् ॥ २ ॥
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अर्थः - व्यवहारनयके अवलम्बनसे सर्वत्र संसार में अशुद्ध ही चिद्रूप दृष्टिगोचर होता है, निश्चयनयसे शुद्ध तो कहीं किसी आत्मामें दिखता है ।
भावार्थ:--व्यवहारनयके अवलंबनसे चिद्रूप कभी शुद्ध हो ही नहीं सकती किन्तु शुद्ध निश्चयके अवलंबनसे ही वह शुद्ध हो सकता है इसलिये शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलाषियोंको चाहिये कि वे शुद्धनिश्चयनयकी ओर विशेषरूपसे अपनी दृष्टिको लगावें ।। २ ।।
चिपे तारतम्येन गुणस्थानाच्चतुर्थतः ।
मिथ्यात्वाद्युदयाद्यख्यमलापायाद् विशुद्धता ॥ ३ ॥
अर्थः- गुणस्थानों में चढ़नेवाले जीवोंका चौथे गुणस्थानसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व और अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप मर्लोका ज्यों ज्यों नाश होता
त. ९
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