________________
६० ]
[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अन्य समस्त क्रियायें मुझे अत्यन्त निस्सार मालम पड़ती हैं उनमें कोई सार दृष्टिगोचर नहीं होता ।। ७ ।।
किंचित्कदोत्तमं क्वापि न यतो नियमानमः । तस्मादनंतशः शुद्धचिद्रपाय प्रतिक्षणं ।। ८ ।।
अर्थः-किसी काल और देश में शुद्धचिद्रूपसे बढ़कर कोई भी पदार्थ उत्तम नहीं है-ऐसा मुझे पूर्ण निश्चय है, इसलिये मैं इस शुद्धचिद्रूपके लिये प्रति-समय अनन्तबार नमस्कार करता हूँ ॥ ८ ॥
बाह्यांत संगमगं नृसुरपतिपदं कर्मवन्धादिभावं विद्याविज्ञान शोभावलभवखसुखं कीर्तिरूपप्रतापं । राज्यागाख्यागकालास्रवकुपरिजनं वाग्मनोयानधीद्धातीर्थेशत्वं ह्यनित्यं स्मर परमचलं शुद्धचिद्रूपमेकं ॥ ९ ॥
अर्थ :-बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, शरीर, सुरेन्द्र और नरेन्द्रका पद, कर्मबन्ध आदि भाव, विद्या, विज्ञान-कलाकौशल, शोभा, बल, जन्म, इन्द्रियोंका सुख, कीति, रूप. प्रताप, राज्य, पर्वत, वृक्ष, नाम, काल, आस्रव, पथ्वी, परिवार, वाणी, मन, वाहन, बुद्धि, दीप्ति और तीर्थकरपना आदि सब पदार्थ चलायमान अनित्य हैं; परन्तु केवल शुद्धचिद्रूप नित्य है और सर्वोत्तम है, इसलिये सब पदार्थोका ध्यान छोड़कर इसीका ध्यान करो ।
भावार्थ :-जो पदार्थ सदा अपने साथ रहे उसीका ध्यान करना आवश्यक है और उचित है, विनाशीक पदार्थोके ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन ? क्योंकि वह तो अपनी अवधिके अन्तमें नियमसे नष्ट हो जायेंगे इसलिये उनका ध्यान करना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org