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छठा अध्याय ] व्यर्थ है और शुद्धचिद्रूप नित्य अविनाशी है इसलिये उसीका ध्यान करना कार्यकारी है ।।९।।
रागाद्या न विधातव्याः सत्यसत्यपि वस्तुनि । ज्ञात्वा स्वशुद्धचिद्रपं तत्र तिष्ठ निराकुलः ॥१०॥
अर्थः-शुद्धचिद्रूपके स्वरूपको भले प्रकार जानकर भले बुरे किसी भी पदार्थमें रागद्वेष आदि न करो सबमें समता भाव रखो और निराकुल हो अपनी आत्मामें स्थिति करो ॥ १० ॥ चिद्रपोऽहं स मे तस्मात्तं पश्यामि सुखी ततः । भवक्षितिर्हितं मुक्तिनिर्यासोऽयं जिनागमे ॥११॥
अर्थ :- मैं शुद्धचिद्रूप हूं' इसलिये मैं उसको देखता हूं और उसीसे मुझे सुख मिलता है । जैन शास्त्रका भी यही निचोड़ है । उसमें भी यही बात बतलाई है कि शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे संसारका नाश और हितकारी मोक्ष प्राप्त होता है ।। ११ ।।
चिद्रपे केवले शुद्धे नित्यानंदमये यदा । स्वे तिष्ठति तदा स्वस्थं कथ्यते परमार्थतः ॥१२॥
अर्थ :-आत्मा स्वस्थ-स्वरूप उसी समय कहा जाता है जबकि वह सदा आनन्दमय केवल अपने शुद्धचिद्रूप में स्थिति करता है ।
भावार्थ:-स्वस्थका अर्थ ( स्वस्मिन् तिष्ठतीति ) अपने में स्थित रहनेवाला होता है । संसार में सिवाय शुद्धचिद्रूपके अन्य कोई भी पदार्थ आत्माका अपना स्व नहीं, इसलिये सदा आनन्दमय केवल शुद्धचिद्रूपमें स्थित रहना ही स्वस्थपना
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