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________________ छठा अध्याय ] [ ५९ चंद्रार्कभ्रभवत्सदा सुरनदीधारौधसंपातवल्लोकैस्मिन् व्यवहारकालगतिवद्रव्यस्यपर्यायवत् । लोकाधस्तलवातसंगमनवत् पद्मादिकोद्भूतिवत् चिद्रूपस्मरणं निरंतरमहो भृयाच्छिवाप्त्यैमम ।।५।। अर्थः -- जिस प्रकार संसार में सूर्य-चन्द्रमा निरंतर घूमते रहते हैं, गंगा नदीकी धार निरंतर बहती रहती है, घंटा, घड़ी, पल आदि व्यवहार काल का भी सदा हेर फेर होता रहता है, द्रव्योंकी पर्यायें सदा पलटती रहती हैं, लीकके अधोभागमें बनवात, तनुवात और अंबुवात ये तीनों वातें सदा घूमती रहती हैं और तालाब आदिमें पद्म आदि सदा उत्पन्न होते रहते हैं, अहो ! उसीप्रकार मेरे मनमें भी सदा शुद्धचिद्रूपका स्मरण बना रहे जिससे मेरा कल्याण हो ।।५।। इति हृत्कमले शुद्धचिद्रूपोऽहं हि तिष्ठतु । द्रव्यतो भावतस्तावद् यावदंगे स्थितिर्मम ॥ ६ ॥ अर्थः-जव तक मैं ( आत्मा ) द्रव्य या भाव किसी रीतिसे इस शरीर में मौजूद हूँ तब तक मेरे हृदय कमलमें शुद्धचिद्रूपोऽहं ( मैं शुद्धचित्स्वरूप हूँ) यह बात सदा स्थित रहे ।। ६ ॥ दृश्यतेऽतीव निःसाराः क्रिया वागंगचेतसां । कृतकृत्यत्वतः शुद्धचिद्रूपं भजता सता ॥ ७ ॥ __ अर्थः -मैं कृतकृत्य हो चुका हूँ-संसारमें मुझे करनेके लिये कुछ भी काम बाकी नहीं रहा है क्योंकि मैं शुद्धचिद्रूपके चितवनमें दत्तचित्त हूँ इसलिये मन, वचन और शरीरकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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