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________________ ५८ । [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी स्त्रीणां भर्ती बलानां हरय इव धरा भूपतीनां स्ववत्सो धेनूनां चक्रवाक्या दिनपतिरतुलश्चातकानां धनार्णः । कासाराद्यब्धराणाममृतमिव नृणां वा निजौकः सुराणां वैद्यो रोगातुराणां प्रिय इव हृदि मे शुद्धचिद्रपनामा ॥३॥ अर्थः-जिस प्रकार स्त्रियों को अपना स्वामी, बलभद्रोंको नारायण, राजाओंको पृथ्वी, गौओंको बछड़े, चकवियोंकी मूर्य, चातकोंको मेधका जल, जलचर आदि जीवोंको तालाब आदि, मनुष्योंको अमृत, देवोंको स्वर्ग और रोगियोंको वैद्य अधिक प्यारा लगता है उसीप्रकार मुझे शुद्धचिद्रूपका नाम परम प्रिय मालूम होता है इसलिये मेरी यह कामना है कि मेरा प्यारा यह शुद्धचिद्रूप सदा मेरे हृदय में विराजमान रहे ।। ३ ।। शापं वा कलयंति वस्तुहरणं चूर्ण वधं ताडनं छेदं भेदगदादिहास्यदहनंनिदाऽऽपदापीडनं । पव्यग्न्यध्यगपंककूपवनभूक्षेपापमानं भयं केचिच्चेत् कलयंतु शुद्धपरमब्रह्मस्मृतावन्वहं ॥४॥ अर्थः- जिस समय मैं शुद्धचिपके चितवनमें लीन होऊँ उस समय दुष्ट मनुष्य यदि मुझे निरंतर शाप देव-दो, मेरी चोज चुराये-चुराओ, मेरे शरीरके टुकड़े टकड़े करें, ताड़ें, छेदें, मेरे रोग उत्पन्न कर हँसी करें, जलावें, निन्दा करें, आपत्ति और पीड़ा करें-करो, सिर पर वज्र डालेंडालो, अग्नि, समुद्र, पर्वत, कीचड़, कुआ, वन और पृथ्वी पर फैके-फैकोः अपमान और भय करें-करो, मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं हो सकता अर्थात् वे मेरी आत्माको किसी प्रकार भी हानि नहीं पहुंचा सकते ।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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