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________________ ५४ ] तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थ :-- इस संसार में मैंने कठिनसे कठिन भी शुभ और अशुभ कार्य किये परन्तु आजतक शुद्धचिपकी कभी चिंता न की ।।२०।। पूर्व या विहिता क्रिया किल महामोहोदयेनाखिला मूढत्वेन मयेह तत्र महतीं प्रीति समातन्वता । चिद्रपाभिरतस्य भाति विषयत सा मन्दमोहस्य मे सर्वस्मिन्नाधुना निरीहमनसोऽतोधिग् विमोहोदयं ॥ २१ ॥ अर्थ :–सांसारिक बातोंमें अतिशय प्रीतिको करानेवाले मोहनीय कर्मके उदयसे मूढ़ बन जो मैं ने पहिले समस्त कार्य किये हैं वे इस समय मुझे विष सरीखे दुःखदायी जान पड़ रहे हैं; क्योंकि इस समय मैं शुद्धचिदूपमें लीन हो गया हूँ। मेरा मोह मंद हो गया है और सब बातोंसे मेरी इच्छा हट गई है, इसलिये इस मोहनीय कर्मके उदयके लिये सर्वथा धिक्कार है । भावार्थः --- जब तक मैं मूढ़ था हित और अहितको जरा भी नहीं पहिचानता था तब तक मोहके उदयसे मैं जिस कामको करता था उसे बहुत अच्छा मानता था परन्तु जब मैं शुद्धचिद्रूपमें लीन हुआ, मेरा मोह मन्द हुआ, और समस्त ऐहिक पदार्थोसे मेरी इच्छा हटी तो मोहके उदयसे किये वे समस्त कार्य मुझे विप सरीखे मालूम होने लगे-जरा भी उनमें मेरा प्रेम न होने लगा इसलिये इस मोहनीय कर्मके लिये सर्वथा धिक्कार है ।। २ ।। व्यक्ताव्यक्तविकल्पानां वृन्देरापूरितो भृशं । लब्धस्तेनावकाशो न शुद्धचिद्रूप चिंतने ।। २२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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