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________________ पाँचवां अध्याय । [ ५३ अर्थ :-मैंने बहुत बार अनेक शास्त्रोंको पढ़ा परन्तु मीहसे मत्त हो शुद्धचिद्रूपका स्वरूप समझानेवाला एक भी शास्त्र न पढ़ पाया ।। १७ ।। न गुरुः शुद्धचिद्रूपस्वरूपप्रतिपादकः । लब्धो मन्ये कदाचित्तं विनाऽसौ लभ्यते कथं ॥ १८ ॥ अर्थ :-शुद्धचिद्रूपका स्वरूप प्रतिपादन करनेवाले आज तक मुझे कोई गुरु नहीं मिले और जब गुरु ही कभी नहीं मिले तब शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हो ही कैसे सकती थी । अर्थात् शुद्धचिद्रूपके स्वरूपके मर्मज्ञ गुरुके बिना शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति सर्वथा दुःसाध्य है ।। १८ ।। सचेतने शुभे द्रव्ये कृता प्रीतिरचेतने । स्वकीये शुद्धचिद्रूपे न पूर्व मोहिना मया ॥ १९ ॥ अर्थ :-अतिशय मोही होकर मैंने सजीव व अजीव शुभद्रव्योंमें प्रीति की, परन्तु आत्मिक शुद्धचिदूपमें कभी प्रेम न किया । भावार्थः-मुनि आदि शुभ चेतनद्रव्योंमें और भगवानकी प्रतिमा आदि शुभ अचेतन द्रव्योंमें मैंने गाढ़ प्रेम किया परन्तु ये पर द्रव्य होनेसे मेरी अभीष्ट सिद्धि न कर सके क्योंकि मेरे अभीष्टकी सिद्धि आत्मिक शुद्धचिदूपमें प्रेम करने से ही हो सकती थी, सो उसमें मैंने कभी प्रेम न किया ।। १९ ।। दुष्कराण्यपि कार्याणि हा शुभान्यशुभानि च । बहूनि विहितानीह नैव शुद्धात्मचिंतनं ॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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