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________________ पाँचवाँ अध्याय ] [ ४९ अर्थ :--पहिले मैंने अनेक वार अनेक पदार्थों का मनन ध्यान किया हैः परन्तु पुत्र स्त्री आदिके मोहसे मूढ़ हो, शुद्धचिद्रूपका कभी आज तक चितवन न किया ॥२॥ अनन्तानि कृतान्येव मरणानि मयापि न ।। कुत्रचिन्मरण शुद्धचिद्रपोऽहमिति स्मृतं ॥३॥ भावार्थ :-मैं अनन्तबार अनन्त भवोंमें मरा; परन्तु मृत्युके समय “ मैं शुद्धचिद्रूप हूँ" ऐसा स्मरण कर कभी न मरा ।।३।। सुरद्रमा निधानानि चितारत्नं घुसद्गवी । लब्धा च न परं पूर्व शुद्धचिद्रूपसंपदा ॥ ४ ॥ अर्थ :-मैंने कल्पवृक्ष, खजाने, चिन्तामणिरत्न और कामधेनु आदि लोकोत्तर अनन्य विभूतियाँ प्राप्त कर ली; परन्तु अनुपम शुद्धचिद्रूप नामकी संपत्ति आज तक कभी नहीं पाई ।। ४ ।। द्रव्यादिपंचधा पूर्व परावर्ता अनन्तशः । कुतास्तेष्वेकशो न स्वं स्वरूपं लग्धवानहं ॥ ५ ॥ अर्थः -मैंने अनादिकालसे इस संसारमें परिभ्रमण किया । इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव नामक पाँचों परिवर्तन भी अनेक बार पूरे किये; परन्तु स्वस्वरूप शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति मुझे आज तक एक बार भी न हुई ।।५।। इन्द्रादीना पदं लब्धं पूर्व विद्याधरेशिनां । अनन्तशोऽहमिंद्रस्य स्वस्वरूपं न केवलं ॥ ६ ॥ अर्थ :--मैंने पहिले अनेक बार इन्द्र, नृपति जादि उत्तमोत्तम पद भी प्राप्त किये । अनन्तबार विद्याधरोंका त. ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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