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[ तवज्ञान तरंगिणी स्वामी और अहमिंद्र भी हुआ; परन्तु आत्मिकरूपशुद्धचिद्रूपका लाभ न कर सका ।।६।।
मध्ये चतुर्गतीनां च बहुशो रिपवो जिताः । पूर्व न मोहप्रत्यर्थी स्वस्वरूपोपलब्धये ॥ ७ ॥
अर्थ : -नरक, मनुष्य, तिर्यंच और देव चारों गतिथोंमें भ्रमणकर मैंने अनेकवार अनेक शत्रुओंको जीता; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये उसके विरोधी महाबलवान मोहरूपी बैरीको कभी नहीं जीता ।।७।।
मया निःशेषशास्त्राणि व्याकृतानि श्रुतानि च । तेभ्यो न शुद्धचिद्रूपं स्वीकृतं तीव्रमोहिना ॥ ८ ॥
अर्थ :-मैंने संसारमें अनंतबार कठिनसे कठिन भी संपूर्ण शास्त्रोंका व्याख्यान किया, अर्थ किया और बहुतसे शास्त्रोंका श्रवण भी किया; परन्तु मोहसे मूढ़ हो उनमें जो शुद्धचिद्रूपका वर्णन है, उसे कभी स्वीकार न किया ।।८।।
वृद्धसेवा कृता वद्वन्महतां सदसि स्थितः । न लब्धं शुद्धचिद्रूपं तत्रापि भ्रमतो निजं ॥ ९ ॥
अर्थ:- इस संसार में भ्रमण कर मैंने कई बार वृद्धोंकी सेवा की व विद्वानोंकी बड़ी-बड़ी सभाओंमें भी बैठा; परन्तु अपने निज शुद्धचिद्रूपको कभी मैंने प्राप्त नहीं किया ।।९।
मानुष्यं बहुशो लब्धमार्ये खंडे च सत्कुलं । आदिसंहननं शुद्धचिद्रूपं न कदाचन ॥ १० ॥
अर्थ :--मैं आर्यखंडमें बहुतवार मनुष्य हुआ, कई बार उत्तम कुलमें भी जन्म पाया; वज्रवृषभनाराच सहनन भी
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