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________________ ५० ] [ तवज्ञान तरंगिणी स्वामी और अहमिंद्र भी हुआ; परन्तु आत्मिकरूपशुद्धचिद्रूपका लाभ न कर सका ।।६।। मध्ये चतुर्गतीनां च बहुशो रिपवो जिताः । पूर्व न मोहप्रत्यर्थी स्वस्वरूपोपलब्धये ॥ ७ ॥ अर्थ : -नरक, मनुष्य, तिर्यंच और देव चारों गतिथोंमें भ्रमणकर मैंने अनेकवार अनेक शत्रुओंको जीता; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये उसके विरोधी महाबलवान मोहरूपी बैरीको कभी नहीं जीता ।।७।। मया निःशेषशास्त्राणि व्याकृतानि श्रुतानि च । तेभ्यो न शुद्धचिद्रूपं स्वीकृतं तीव्रमोहिना ॥ ८ ॥ अर्थ :-मैंने संसारमें अनंतबार कठिनसे कठिन भी संपूर्ण शास्त्रोंका व्याख्यान किया, अर्थ किया और बहुतसे शास्त्रोंका श्रवण भी किया; परन्तु मोहसे मूढ़ हो उनमें जो शुद्धचिद्रूपका वर्णन है, उसे कभी स्वीकार न किया ।।८।। वृद्धसेवा कृता वद्वन्महतां सदसि स्थितः । न लब्धं शुद्धचिद्रूपं तत्रापि भ्रमतो निजं ॥ ९ ॥ अर्थ:- इस संसार में भ्रमण कर मैंने कई बार वृद्धोंकी सेवा की व विद्वानोंकी बड़ी-बड़ी सभाओंमें भी बैठा; परन्तु अपने निज शुद्धचिद्रूपको कभी मैंने प्राप्त नहीं किया ।।९। मानुष्यं बहुशो लब्धमार्ये खंडे च सत्कुलं । आदिसंहननं शुद्धचिद्रूपं न कदाचन ॥ १० ॥ अर्थ :--मैं आर्यखंडमें बहुतवार मनुष्य हुआ, कई बार उत्तम कुलमें भी जन्म पाया; वज्रवृषभनाराच सहनन भी www.jainelibrary.org - Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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