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________________ C पाँचवाँ अध्याय शुद्धचिरूपके पहले कभी भी प्राप्ति नहीं हुई ' - इस बातका वर्णन वसनरसरुजामन्नधातूपलानां रत्नानामौषधीनां स्त्रीभाइयानां नराणां जलचरवयसां गोमहिष्यादिकानां । नामोत्पत्त्तार्थान् विशद्मतितया ज्ञातवान् प्रायशोऽहं शुद्धचिद्रपमात्रं कथमहह निजं नैव पूर्वं कदाचित् ॥ १ ॥ अर्थ : - मैंने पहिले कई बार रत्न, औषधि, वस्त्र, घी आदि रस, रोग, अन्न, सोना-चांदी आदि धातु, पाषाण, स्त्री, हस्ती, घोड़े, मनुष्य, मगरमच्छ आदि जलके जीव, पक्षी और गाय, भैंस आदि पदार्थोके नाम, उत्पत्ति, मूल्य और प्रयोजन भले प्रकार अपनी विशद् बुद्धिसे जान - सुन लिये हैं; परन्तु जो निज शुद्धचिद्रूप नित्य है, आत्मिक है उसे आज तक कभी पहिले नहीं जाना है । भावार्थ:- मैं अनादिकाल से इस संसार में घूम रहा हूँ । नहीं बचा जिसका मैने नाम कारण, मूल्य और प्रयोजन न शुद्धचिद्रूप नामका पदार्थ ऐसा कभी नाम सुना, न इसकी मुझसे संसार में ऐसा कोई पदार्थ न जाना हो, उसकी उत्पत्ति के पहिचाने हो; परन्तु एक निज बच गया है, जिसका न मैंने प्राप्ति के उपाय सोचे और न इसका प्रयोजन ही पहिचाना | इसलिये यह मेरे लिये अपूर्व पदार्थ है ।। १ ।। पूर्व मया कृतान्येव चिंतनान्यप्यनेकशः । न कदाचिन्महामोहात् शुद्धचिपचितनं ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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