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चौथा अध्याय ]
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अर्थः-- निराकुलतारूप ( किसी प्रकारकी आकुलता न होना ) आनन्द है और इस आनन्दकी प्राप्ति सज्जनोंको शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे ही हो सकती है; क्योंकि यह शुद्धचिद्रूप आनन्दमय है – आनन्दमयपदार्थ इससे भिन्न नहीं है ।। २१ ।। तं स्मरन् लभते ना तमन्यदन्यच्च केवलं । याति यस्य पथा पांथस्तदेव लभते पुरं ॥ २२ ॥
अर्थ :- जिस प्रकार पथिक मनुष्य जिस गांवके मार्गको पकड़कर चलता है वह उसी गांव में पहुँच जाता है, अन्य गांव के मार्ग से चलनेवाला अन्य गांव में नहीं । उसीप्रकार जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपका स्मरण ध्यान करता है, वह शुद्धचिद्रूपको प्राप्त करता है और जो धन आदि पदार्थोकी आराधना करता हैं, वह उनकी प्राप्ति करता है; परन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि अन्य पदार्थोका ध्यान करे और शुद्धचिद्रूपको
पा जाय ।। २२ ।।
शुद्धचिद्रूपसंप्राप्तिर्दुर्गमा मोहतोऽगिनां ।
तज्जयेऽत्यंत सुगमा क्रियाकांडविमोचनात् ॥ २३ ॥ अर्थः- यह मोहनीय कर्म महाबलवान है । जो जीव इसके जाल में जकड़े हैं उन्हें शुद्धचिपकी प्राप्ति दुःसाध्य है और जिन्होंने इसे जीत लिया है उन्हें तप आदि क्रियाओंके बिना ही सुलभतासे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति हो जाती है ||२३| इति मुमुक्षु भट्टारक श्री ज्ञानभूपणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूपप्राप्तिसुगमत्वप्रतिपादको नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥ इस प्रकार मोक्षाभिलापी भट्टारक ज्ञानभूषण द्वारा निर्मित तत्त्वज्ञान-तरंगिणीमें शुद्धचिपकी प्राप्तिको सुगम बतलानेवाला चौथा अध्याय समाप्त हुआ || ४ ||
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