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________________ ४६ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता करे तो बहुत ही शीघ्र इसे मोक्षसुख मिल जाय ।। १७ ।। विमुच्च शुद्धचिद्रपचितनं ये प्रमादिनः । अन्यत् कार्य च कुर्वति ते पिवंति सुधां विषं ॥। १८ ।। अर्थः- जो आलसी मनुष्य सुख-दुःख और उनके कारणोंको भले प्रकार जानकर भी प्रमादके उदयसे शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता छोड़ अन्य कार्य करने लग जाते हैं, वे अमृतको छोड़कर महा दुःखदायी विषपान करते हैं । इसलिये तत्त्वज्ञोंको शुद्धचिद्रूपका सदा ध्यान करना चाहिये ।। १८ ।। विषयानुभवे दुःखं व्याकुलत्वात् सतां भवेत् । शुद्धचिद्रपानुभवे निराकुलत्वतः जीवोंका चित्त सदा अर्थः — इन्द्रियोंके विषय भोगने में व्याकुल बना रहता है, इसलिये उन्हें अनन्त क्लेश भोगने पड़ते हैं । शुद्धचिद्रूपके अनुभवमें किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती, इसलिये उसकी प्राप्तिसे जीवोंका परम कल्याण होता है ।। १९ । रागद्वेषादिजं दुखं शुद्धचिद्रपचितनात् । याति तच्चितनं न स्याद् यतस्तद्गमनं विना ॥ २० ॥ सुखं ॥ १९ ॥ अर्थ :- राग-द्वेप आदिके कारणसे जीवोंको अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपका स्मरण करते ही वे पलभर में नष्ट हो जाते हैं — ठहर नहीं सकते; क्योंकि बिना रागादिके दूर हुये शुद्धचिद्रूपका ध्यान ही नहीं हो सकता ।। २० ॥ आनन्दो जायतेत्यन्तः शुद्धचिद्रूपचितने । निराकुलत्वरूपो हि सतां यत्तन्मयोऽस्त्यसौ ॥ २१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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