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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी
शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता करे तो बहुत ही शीघ्र इसे मोक्षसुख मिल जाय ।। १७ ।।
विमुच्च शुद्धचिद्रपचितनं ये प्रमादिनः ।
अन्यत् कार्य च कुर्वति ते पिवंति सुधां विषं ॥। १८ ।।
अर्थः- जो आलसी मनुष्य सुख-दुःख और उनके कारणोंको भले प्रकार जानकर भी प्रमादके उदयसे शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता छोड़ अन्य कार्य करने लग जाते हैं, वे अमृतको छोड़कर महा दुःखदायी विषपान करते हैं । इसलिये तत्त्वज्ञोंको शुद्धचिद्रूपका सदा ध्यान करना चाहिये ।। १८ ।।
विषयानुभवे दुःखं व्याकुलत्वात् सतां भवेत् । शुद्धचिद्रपानुभवे
निराकुलत्वतः
जीवोंका चित्त सदा
अर्थः — इन्द्रियोंके विषय भोगने में व्याकुल बना रहता है, इसलिये उन्हें अनन्त क्लेश भोगने पड़ते हैं । शुद्धचिद्रूपके अनुभवमें किसी प्रकारकी आकुलता नहीं होती, इसलिये उसकी प्राप्तिसे जीवोंका परम कल्याण होता है ।। १९ ।
रागद्वेषादिजं दुखं शुद्धचिद्रपचितनात् ।
याति तच्चितनं न स्याद् यतस्तद्गमनं विना ॥ २० ॥
सुखं ॥ १९ ॥
अर्थ :- राग-द्वेप आदिके कारणसे जीवोंको अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं; परन्तु शुद्धचिद्रूपका स्मरण करते ही वे पलभर में नष्ट हो जाते हैं — ठहर नहीं सकते; क्योंकि बिना रागादिके दूर हुये शुद्धचिद्रूपका ध्यान ही नहीं हो
सकता ।। २० ॥
आनन्दो जायतेत्यन्तः शुद्धचिद्रूपचितने । निराकुलत्वरूपो हि सतां यत्तन्मयोऽस्त्यसौ ॥ २१ ॥
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