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________________ चौथा अध्याय । भावार्थः-मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ। मुझसे अन्य समस्त पदार्थ जड़ हैं । जड़ और चेतनमें अति भेद है । कभी जड़ चेतन नहीं हो सकता और चेतन जड़ नहीं हो सकता । इसलिये मुझे जड़को अपनाना और उसकी चिंता नहीं करना व्यथा है; अतः मैं मेरे शुद्ध आत्मस्वरूप में ही तल्लीन होता हूँ-एकाग्र होता हूँ ।। १० ।। अनुभूय मया ज्ञातं सर्व जानाति पश्यति । अयमात्मा यदा कर्मप्रतिसीरा न विद्यते ॥ ११ ।। अर्थः-जिस समय कर्मरूपी परदा इस आत्माके ऊपर से हट जाता है, उस समय यह समस्त पदार्थोको साक्षात् जानदेख लेता है । यह बात मुझे अनुभवसे मालूम पड़ती है । भावार्थः-यह आत्मा अनादिकाल में संसारमें रुल रहा है और कर्मोसे आवृत होनेके कारण इसे बहुत ही अल्प ज्ञान होता है; परन्तु जिस समय कर्मोका आवरण हट जाता है उस समय यह समस्त पदार्थोंको हाथकी रेखाके समान स्पष्टरूपसे देख जान लेता है यह बात अनुभवसिद्ध है ।।११।। विकल्प जालजंबालान्निर्गतोऽयं सदा सुखी । आत्मा तत्र स्थितो दुःखीत्यनुभूय प्रतीयतां ॥ १२ ॥ अर्थः-जब तक यह आत्मा नाना प्रकारके संकल्प विकल्परूपी शेवाल ( काई )में फँसा रहता है, तव तक यह सदा दुःखी बना रहता है-क्षण भरके लिये भी इसे सुख-शांति नहीं मिलती; परन्तु जब इसके संकल्प-विकल्प छूट जाते हैं; उस समय यह सुखी हो जाता है-निराकुलतामय सुखका अनुभब करने लग जाता है, ऐसा स्वानुभवसे निश्चय होता है ।।१२।। अनुभूत्या मया बुद्धमयमात्मा महाबली । लोकालोकं यतः सर्वमंतनयति केवलः ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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