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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी भावार्थः-शुद्धचिद्रूप समस्त कर्मोसे रहित हो गया है । इसलिये वह परमात्मा और परब्रह्म है, ज्ञान-दर्शन आदि चेतनाओंका पिंडस्वरूप है इसलिये चिदात्मा-चैतन्यस्वरूप है, समस्त पदार्थोका देखनेवाला है इसलिये सर्वदृक् सर्वदृष्टा है और कल्याण स्वरूप है इसलिये शिव है ।। ८ ।। मध्ये श्रुताब्धेः परमात्मनामरत्नत्रजं वीक्ष्य मया गृहीतं । सर्वोत्तमत्वादिदमेव शुद्धचिद्रूपनामातिमहार्यरत्नं ॥ ९ ॥
__ अर्थः-जैन शास्त्र एक अपार सागर है और उसमें परमात्माके नामरूपी अनन्त रत्न भरे हुये हैं, उनमेंसे भले प्रकार परीक्षा कर और सबोंमें अमूल्य उत्तम मान यह शुद्धचिद्रूपका नामरूपी रत्न मैंने ग्रहण किया है ।
भावार्थ:-जिस प्रकार रत्नाकर-समुद्र में अनन्त रत्न विद्यमान रहते हैं और उनमेंसे किसी एक सार व उत्तम रत्नको ग्रहण कर लिया जाता है । उसीप्रकार जैनशास्त्रमें भी परंब्रह्म, परमात्मा, शुद्धचिद्रूप आदि अगणित परमात्माके नाम उल्लेखित हैं, उनमेंसे मैंने 'शुद्धचिद्रूप', इस नामको उत्तम और परम प्रिय मान ग्रहण किया है और इसी नामका मनन व ध्यान करना उत्तम समझा है ।। ९ ।।
नाहं किंचिन्न मे किंचिद् शुद्धचिद्रपकं विना । तस्मादन्यत्र मे चिंता वृथा तत्र लयं भजे ॥ १० ॥
अर्थः-संसारमें सिवाय शुद्धचिद्रूपके न तो मैं कुछ हूँ और न अन्य ही कोई पदार्थ मेरा है इसलिये शुद्धचिद्रूपसे अन्य किसी पदार्थमे मेरा चिन्ता करना वृथा है; अतः मैं शुद्धचिद्रूप में ही लीन होता हूँ ।
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