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{ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थः-यह शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा अचिंत्य शक्तिका धारक है, ऐसा मैंने भले प्रकार अनुभवकर जान लिया है; क्योंकि यह अकेला ही समस्त लोक-अलोकको अपने में प्रविष्ट कर लेता है ।
भावार्थ:-जिसके ज्ञानमें अनन्तप्रदेशी लोक-अलोक दोनों प्रविष्ट हो जाते हैं--जो लोकाकाश-अलोकाकाश दोनोंको स्पष्टरूपसे जानता है, ऐसा यह आत्मा है । इसलिये यह अचित्य शक्तिका धारक है । अन्य किसी पदार्थ में ऐसी सामर्थ्य नहीं जो कि इस आत्माकी तुलना कर सके ।। १३ ।।
स्मृतिमेति यतो नादौ पश्चादायाति किंचिन ।। कर्मोदयविशेषोऽयं ज्ञायते हि चिदात्मनः ॥ १४ ॥ विस्फुरेन्मानसे पूर्व पश्चान्नायाति चेतसि । किंचिद्वस्तु विशेषोऽयं कर्मणः किं न वुध्यते ॥ १५ ॥
अर्थः-यदि यह चैतन्यस्वरूप आत्मा किसी पदार्थका स्मरण करता है तो पहिले वह पदार्थ उसके ध्यानमें जल्दी प्रविष्ट नहीं होता; परन्तु एकाग्र हो जब यह बार-बार ध्यान करता है तब उसका कुछ-कुछ स्मरण हो आता है। इसलिये इससे ऐसा जान पड़ता है कि यह आत्मा कोसे आवृत है । तथा पहिले पहिल यदि किसी पदार्थका स्मरण भी हो जाय तो उसके जरा ही विस्मरण हो जाने पर फिर बार बार स्मरण करने पर भी उसका स्मरण नहीं आता, इसलिये आत्मा पर कर्मोकी माया जान पड़ती है अर्थात् आत्मा कर्मके उदयसे अवनत है यह स्पष्ट जान पड़ता है ।
भावार्थः-यदि शुद्धनिश्चयनयसे देखा जाय तो भूत, भविष्यत व वर्तमान तीनोंकालकी पर्यायोंको हाथकी रेखाके
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