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[ तत्त्वज्ञान तरंगिणी खार्थानां कृतपूर्वकार्यविततेः कालत्रयाणामपि स्वात्मा केवलचिन्मयोऽशकलनात् सर्वोऽस्य निश्चीयते ॥५॥युग्मं।।
अर्थ:-जिस प्रकार अन्न, पाषाण, अगरु और अफीमके समान पदार्थके कुछ भागके स्पर्श करनेसे, इलायची, आम, कसोस और जलके समान पदार्थके कुछ अंशके स्वादसे, धी आदिके समान पदार्थके कुछ अंशके घनेसे, वस्त्र सरीखे पदार्थके किसी अंशको आंखसे देखनेसे कर्करी ( झालर ) आदिके शब्द श्रवणसे और मनसे शास्त्र आदिके समस्त स्वरूपका निश्चय कर लिया जाता है । उसीप्रकार पहिले देखे हुये पर्वत, समुद्र, वृक्ष, नगरो, गाय, भेंस आदि तिर्यंच और मनुष्योंके, शास्त्रोंसे जाने गये मेरु हृद, तालाब, नदी और द्वीप आदि लोककी स्थितिके, पहिले अनुभूत इन्द्रियोंके विषय और किये गये कार्योके एवं तीनों कालोंके स्मरण आदि कुछ अंशोंसे अखण्ड चेतन्यस्वरूपके पिंडस्वरूप इस आत्माका भी निश्चय कर लिया जाता है ।
भावार्थ:-जिस प्रकार पापाण, इलायची, घी, झालर आदि पदार्थोके समान पदार्थो में पापाण आदिके समान ही स्पर्श, रस, गंध आदि गुण रहते हैं, इसलिये उनके स्पर्श, रस, गन्ध व शब्द आदि किसी अंशसे उनके समस्त स्वरूपका निश्चय कर लिया जाता है । उसीप्रकार यह आत्मा भी मतिज्ञान, स्मतिज्ञान आदि चेतनाओंके पिंडस्वरूप है; क्योंकि इसे पहिले देखे पर्वत, समुद्र, वृक्ष आदि पदार्थोका स्मरण होता है । शास्त्रमें वर्णन किये मेरु हृद, नदी आदिके स्वरूपको यह जानता है । पहिले अनुभूत इन्द्रियोंके विषय और किये गये कामोंका भी इसे स्मरण रहता है, भूत, भविष्यत व वर्तमान तीनों कालोंको भी भले प्रकार जानता
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