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चौथा अध्याय !
दुर्गमा भोगभूः स्वर्गभूमिर्विद्याधरावनिः । नागलोकधरा चातिसुगमा शुद्धचिद्धरा ॥ २ ॥ तत्साधने सुखं ज्ञानं मोचनं जायते समं । निराकुलत्वमभयं सुगमा तेन हेतुना ॥ ३ ॥
अर्थ :--- संसार में भोगभूमि, स्वर्गभूमि, विद्याधरलोक और नागलोककी प्राप्ति तो दुर्गम-दुर्लभ है; परन्तु शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति अति सरल है क्योंकि चिद्रूपके साधन में सुख, ज्ञान, मोचन, निराकुलता और भयका नाश ये साथ साथ होते चले जाते हैं और भोगभूमि आदिके सावन में बहुत कालके बाद दूसरे जन्ममें होते हैं ।
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भावार्थ : - भोगभूमि, स्वर्गभूमि, विद्याधरलोक और नागलोककी प्राप्ति संसार में अति कष्टसाध्य है । हरएक मनुष्य भोगभूमि आदिकी प्राप्ति कर नहीं सकता और जो कर भी सकते हैं वे तप आदि आचरण करनेसे बहुत दिनोंके बाद, पर जन्ममें कर सकते हैं और तभी वे वहांका सुख भोग सकते हैं; परन्तु जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपके स्मरण और ध्यान करनेवाले हैं वे विना ही किसी कष्ट के साथ ही साथ उसका सुख भोग लेते हैं, उसे प्राप्त कर लेते हैं । इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि वे शुद्धचिद्रूपका स्मरण ध्यान अवश्य करें ||२ - ३।। अन्नाइमागुरुनागफेनसदृशं स्पर्शेन तस्यांशतः कौमाराम्रकसी सवारि सदृशं स्वादेन सर्वं वरं ।
गंधेनैव घृतादि वस्त्रसदृशं दृष्ट्ा च शब्देन च कर्कर्यादि च मानसेन च यथा शास्त्रादि निश्चीयते ॥ ४ ॥ स्मृत्या दृष्टनगान्धिभूरुहपुरीतिर्यग्नराणां तथा सिद्धांतोक्तसुराचलहृद नदीद्वीपा दिलोकस्थितेः ।
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