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। तत्त्वज्ञान तरंगिणी अवयव जो मतिज्ञान आदि हैं उनसे उसका स्मरण करना चाहिये ।।१९।।
ज्ञेये दृश्ये यथा स्वे स्वे चित्तं ज्ञातरि दृष्टरि । दद्याच्चेन्ना तथा विदेत्परं ज्ञानं च दर्शनं ॥ २० ॥
अर्थः-मनुष्य जिस प्रकार घट-पट आदि ज्ञेय और दृश्य पदार्थों में अपने चित्त को लगाता है, उसी प्रकार यदि वह शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये ज्ञाता और दृष्टा आत्मामें अपना चित्त लगावे तो उसे स्वस्वरूपका शुद्धदर्शन और ज्ञान शीत हो प्राप्त हो जाय ।।२०।।
उपायभूतमेवात्र शुद्धचिद्रपलब्धये । यत् किंचित्तत् प्रियं मेऽस्ति तदथित्वान्न चापरं ॥ २१ ॥ ___ अर्थः-शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके इच्छुक मनुष्यको सदा ऐसा विचार करते रहना चाहिये कि जो पदार्थ शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिमें कारण है वह मुझे प्रिय है; क्योंकि मैं शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिका अभिलाषी हूँ और जो पदार्थ उसकी प्राप्तिमें कारण नहीं है, उससे मेरा प्रेम भी नहीं है ।।२१।।
चिद्रपः केवलः शुद्ध आनन्दात्मेत्यहं स्मरे । मुक्त्यै सर्वज्ञोपदेशः श्लोकाद्धन निरूपितः ॥ २२ ॥
अर्थः–यह चिद्रूप, अन्य द्रव्योंके संसर्गसे रहित केवल है, शुद्ध है और आनन्द स्वरूप है, ऐसा मैं स्मरण करता हूँ; क्योंकि जो यह आधे श्लोकमें कहा गया भगवान सर्वज्ञका उपदेश है-वह ही मोक्षका कारण है ।।२२।।
बहिश्चितः पुरः शुद्धचिद्रपाख्यानकं वृथा । अंधस्य नर्त्तनं गानं वधिस्य यथा भुवि ॥ २३ ॥
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