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________________ तृतीय अध्याय ] भावार्थः - ' मैं शुद्धचिद्रूप हू' ऐसा प्रति समय कहनेसे, अनुभव और स्मरण करनेसे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये दृढ़ प्रवृत्ति होती चली जाती है-उत्साह कम नहीं होता, इसलिये शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये अवश्य विद्वानोंको ऐसा करते रहना चाहिये ।।१७।। शुद्धचिद्रपसद्ध्यानहेतुभूतां क्रियां भजेत् ।। सुधीः कांचिच्च पूर्व तद्ध्याने सिद्धे तु तां त्यजेत् ॥१८॥ अर्थ :- जब तक शुद्धचिद्रूपका ध्यान सिद्ध न हो सके, तब तक विद्वानको चाहिये कि उसके कारण रूप क्रियाका अवश्य आश्रय लें; परन्तु उस ध्यानके सिद्ध होते ही उस क्रियाका सर्वथा त्याग कर दें । भावार्थ :-जिस प्रकार चित्रकला सीखनेका अभिलाषी मनुष्य पहिले रद्दी कागजों पर चित्र बनाना सीखता है, पश्चात् चित्रकलामें प्रवीण हो जाने पर रद्दी कागजों पर चित्र खींचना छोड़ उत्तम कागजों पर खींचने लग जाता है। उसी प्रकार जो मनुष्य प्रथम ही प्रथम शुद्धचिद्रूपका ध्यान करता है उसका मन स्थिर नहीं रह सकता, इसलिये उसे ध्यानकी सिद्धिके लिये भगवानकी प्रतिमा आदि सामने रख लेनी चाहिये ; परन्तु जिस समय ध्यान सिद्ध हो जाय उस समय उनकी कोई आवश्यकता नहीं, सर्वथा उनका त्याग कर देना चाहिये ।।१८।। अंगस्यावयबैरंगमंगुल्यायैः परामृशेत् । मत्यायैः शुद्धचिद्रूपावयवैस्तं तथा स्मरेत् ॥ १९ ॥ अर्थ :-जिस प्रकार शरीरके अवयव अंगुली आदिसे शरीरका स्पर्श किया जाता है, उसी प्रकार शुद्ध चिद्रूपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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