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________________ ३४ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अपनी समस्त आयुके कालको समाप्त कर देते हैं इसलिये जिनका समय स्वस्वरूप - शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति में व्यतीत हो ऐसे मनुष्य संसार में विरले ही हैं । वे भावार्थः - संसार में मनुष्य अनेक प्रकारके होते हैं । कोई राजकथा करना अच्छा समझते हैं । कोई रात-दिन इस चिन्तामें लगे रहते हैं कि हमको विषयमुख, कला, कीर्ति और धन कैसे मिले ? अनेकोंकी यह कामना रहती है कि पुत्र कैसे हो ? इसलिये पुत्रकी उत्पत्ति के उपाय ही सोचते रहते हैं । कोई गौ, बैल आदि पशुओंके पालन करनेमें ही आनन्द मानते हैं । अनेक दूसरोंकी सेवा करना ही उत्तम समझते हैं । बहुतसे सोना, खेलना, औषधि आदिके सेवन करने में ही संतोष मानते हैं । किसी-किसी मनुष्यका चित्त इसी चिन्तासे व्याकुल रहा आता है कि अमुक देव या मनुष्य हमसे प्रसन्न रहे और अनेक मनुष्य अपने शरीरके ही भरणपोषण में लगे रहते हैं । सार यह है कि इनका समस्त जीवन इन्हीं कामोंमें व्यतीत होता रहता है, वे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न नहीं कर सकते । इसलिये शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति नितांत दुर्लभ है और उसको विरले ही मनुष्य प्राप्त कर सकते हैं ।।१६॥ वाचांगेन हृदा शुद्धचिद्रूपोहति सर्वदानुभवामीह स्मरामीति त्रिधा भजे ॥ १७ ॥ । 1 अर्थः- शुद्धचिद्रूपके विषय में सदा यह विचार करते रहना चाहिये कि 'मैं शुद्धचिद्रूप हूँ ऐसा मन-वचन-कायसे सदा कहता हूँ तथा अनुभव और स्मरण करता हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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