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तृतीय अध्याय ]
[ ३७ अंतश्चितः पुरः शुद्धचिद्रपाख्यानकं हितं ।
बुभुक्षिते पिपासात्तेऽन्नं जलं योजितं यथा ॥ २४ ।।
अर्थः-जिस प्रकार अंधेके सामने नाचना और बहिरे के सामने गीत गाना व्यर्थ है, उसी प्रकार बहिरात्माके सामने शुद्धचिद्रूपकी कथा भी कार्यकारी नहीं है; परन्तु जिस प्रकार भूखेके लिये अन्न और प्यासेके लिये जल हितकारी है, उसी प्रकार अन्तरात्माके सामने कहा गया शुद्धचिद्रूपका उपदेश भी परम हित प्रदान करने वाला है ।।२३-२४।।
उपाया बहवः संति शुद्धचिद्रपलब्धये । तद्ध्यानेन समो नाभूदुपायो न भविष्यति ॥ २५ ॥
अर्थः-अन्तमें ग्रन्थकार कहते हैं कि--यद्यपि शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके बहुतसे उपाय हैं, तथापि उनमें ध्यानरूप उपायकी तुलना करने वाला न कोई उपाय हुआ है, न है और न होगा, इसलिये जिन्हें शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिकी अभिलाषा हो उन्हें चाहिये कि वे सदा उसका ही नियमसे ध्यान करें ।। २५ ।। । इति मुमुक्षुभट्टारक श्री ज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां
शुद्धचिद्पप्राप्त्युपायनिरूपणो नाम
तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ इस प्रकार मोक्षाभिलापी भट्टारक ज्ञानभूपण द्वारा निर्मित तत्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्धचिद्रूपकी
प्राप्तिका उपाय वर्णन करने वाला तीसरा अध्याय समाप्त हुआ ॥३॥
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