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तृतीय अध्याय !
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किसी भी चिन्ताको अपने हृदयमें जरा भी न पटकने दें | ६।
शुद्धचिद्रूपसद्वयानभानुरत्यंतनिर्मलः । जनसंगति संजातविकल्पाब्दै स्तिरोभवेत् ॥ ७॥
अर्थः- यह शुद्धचिद्रूपका ध्यानरूपी सूर्य, महानिर्मल और देदीप्यमान है । यदि इस पर स्त्री, पुत्र आदिके संसर्ग से उत्पन्न हुये विकल्परूपी मेधका पर्दा पड़ जायगा तो यह ढक ही जायगा ।
भावार्थः —स्त्री पुत्र आदिको चिन्तायें
शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें विघ्न करने वाली हैं । चिन्ता होते ही ध्यान सर्वथा उखड़ जाता है, इसलिये शुद्धचिद्रूपके ध्यानीको तनिक भी स्त्री- पुत्र आदि संबंधी चिन्ता न करनी चाहिये ॥७॥
अभव्ये शुद्धचिद्रपध्यानस्य नोद्भवो भवेत् । वंध्यायां किल पुत्रस्य विषाणस्य खरे यथा ॥ ८ ॥ अर्थः - जिस प्रकार वांझके पुत्र नहीं होता और गधे के सींग नहीं होते, उसी प्रकार अभव्यके शुद्धचिद्रूपका ध्यान कदापि नहीं हो सकता ।
भावार्थ - अभव्यको मोक्ष, स्वर्ग आदिका श्रद्धान नहीं होता; किन्तु पित्तज्वर वालेको मीठा दूध भी जिस प्रकार कडुआ लगता है, उसी प्रकार अभव्यको भी सब धार्मिक बातें विपरीत ही भासती हैं । बांझके पुत्र और गधेके सींग होने जैसे असंभव हैं, उसी प्रकार अभव्यके चिद्रूपका ध्यान होना भी सर्वथा असंभव है ।। ८ ।।
दूरभव्यस्य नो शुद्धचिद्रूपध्यानसंरुचिः । यथाऽजीर्णविकारस्य
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भवेदन्नसंरुचिः ॥ ९ ॥
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