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[ तत्व ज्ञान तरंगिणी अर्थ:-जिसको अजीर्णका विकार है-खाया-पीया नहीं पचता उसकी जिस प्रकार अन्नमें रुचि नहीं होती, उसी प्रकार जो दुरभव्य है उसकी भी शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें प्रीति नहीं हो सकती ।। ९ ।।
भेदज्ञानं विना शुद्धचि द्र्पज्ञानसंभवः । भवेन्नैव यथा पुत्रसंभूतिर्जनकं विना ॥१०॥
अर्थः-जिस प्रकार कि पुरुषके बिना स्त्रीके पुत्र नहीं हो सकता, उसी प्रकार बिना भेदविज्ञानके शुद्धचिद्रूपका ध्यान भी नहीं हो सकता ।
भावार्थ:-यह मेरी आत्मा शुद्धचैतन्यस्वरूप है और शरीर आदि पर तथा जड़ है, ऐसे ज्ञानका नाम भेदविज्ञान है । जब तक ऐसा ज्ञान नहीं होता तब तक शुद्धचिद्रूपका भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये शुद्धचिद्रूपके ज्ञानमें भेदविज्ञान प्रधान कारण है ।। १० ।।
कर्मागाखिलसंगे, निर्ममतामातरं विना । शुद्धचिद्रप सद्ध्यान पुत्र सूतिर्न जायते ॥ ११ ॥
अर्थ :-जिस प्रकार बिना माताके पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता, उसीप्रकार कर्म द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त परिग्रहोंमें ममता त्यागे बिना शुद्धचिद्रूपका ध्यान भी होना असंभव है अर्थात् पुत्रकी प्राप्तिमें जिस प्रकार माता कारण है, उसी प्रकार शुद्धचिद्रूपके ध्यानमें स्त्री-पुत्र आदिमें निर्ममता (ये मेरे नहीं हैं ऐसा भाव ) होना कारण है ।। ११ ।।
तत्तस्य गतचिंता निर्जनताऽऽसन्न भव्यता । भेदज्ञानं परस्मिन्निर्ममता ध्यानहेतवः ॥१२॥
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