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[ तत्त्व ज्ञान तरंगिणी भावार्थः-कोई कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ( परिणाम ) ऐसे आकर उपस्थित हो जाते हैं कि शुद्धचिद्रूरूपके स्मरणमें विघ्नकारक बन जाते हैं, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि इस प्रकारके पदार्थोंका सर्वथा त्याग कर दे; परन्तु बहुतसे द्रव्य, क्षेत्र आदि शुद्धचिद्रूपके स्मरणमें अनुकूल हितकारी भी होते हैं, इसलिये उनका कड़ी रीतिसे आश्रय लें ।।४।।
संगं विमुच्य विजने वसंति गिरिगह्वरे । शुद्धचिद्रूपसंप्राप्त्यै ज्ञानिनोऽन्यत्र निःस्पृहाः ॥५॥
अर्थः-जो मनुष्य ज्ञानी हैं, वे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये अन्य समस्त पदार्थों में सर्वथा निस्पृह हो समस्त परिग्रहका त्याग कर देते हैं और एकान्त स्थान पर्वतकी गुफाओंमें जाकर रहते हैं ॥५॥
स्वल्पकार्यकृती चिंता महावज्रायते ध्रुवं ।
मुनीनां शुद्धचिद्रूपध्यानपर्वत भंजने ॥६॥ ___ अर्थ :-जिस प्रकार वज्र, पर्वतको चूर्ण चूर्ण कर देता है उसी प्रकार जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता करनेवाला है, वह यदि अन्य किसी थोडेसे भी कार्य के लिये जरा भी चिन्ता कर बैठता है तो शुद्धचिद्रूपके ध्यानसे सर्वथा विचलित हो जाता है ।
भावार्थः- शुद्धचिद्रूपका ध्यान उसी समय हो सकता है जिस समय किसी बातकी चिन्ता हृदयमें स्थान न पावे । यदि शुद्धचिद्रूपके ध्याते समय किसी प्रकारकी चिन्ता आ उपस्थित हुई तो वह ध्यान नष्ट ही हो जाता है, इसलिये विद्वानोंको चाहिये कि शुद्धचिपके ध्यान करते समय अन्य
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