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________________ तृतीय अध्याय ] [ २७ पूजा सेवा किये शुद्धचिद्रूपकी ओर ध्यान जाना सर्वथा दुःसाध्य है, इसलिये शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके अभिलापी विद्वान, अवश्य देव आदिकी सेवा उपासना करते हैं ||२|| अनिष्टान् खहृदामर्थानिष्टानपि भजेच्यजेत् । शुद्धचिद्रपसद्ध्याने सुधीर्हेतूनहेतुकान् ||३|| अर्थ :- शुद्धचिद्रूपके ध्यान करते समय इन्द्रिय और मनके अनिष्ट पदार्थ भी यदि उसकी प्राप्ति में कारण स्वरूप पड़े तो उनका आश्रय कर लेना चाहिये और इन्द्रिय- मनको इष्ट होने पर भी यदि वे उसकी प्राप्ति में कारण न पड़े- बाधक पड़े तो उन्हें सर्वथा छोड़ देना चाहिये । भावार्थ : - संसार में पदार्थ दो प्रकारके हैं—- इष्ट और अनिष्ट | जो पदार्थ मन और इन्द्रियोंको प्रिय हैं, वे इष्ट हैं और जो अप्रिय हैं, वे अनिष्ट हैं । इनमें अनिष्ट रहने पर भी जो पदार्थ शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति में कारण हों उनका अवलंबन कर लेना चाहिये और जो इष्ट होने पर भी उसकी प्राप्ति में कारण न हों उनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि उनसे कोई प्रयोजन नहीं है ॥३॥ मुंचेत्समाश्रयेध्छुद्धचिद्रूपस्मरणेऽहितं । हितं सुधीः प्रयत्नेन द्रव्यादिकचतुष्टयं ||४| अर्थ : - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप पदार्थोंमें जो पदार्थ शुद्धचिपके स्मरण करनेमें हितकारी न हो उसे छोड़ देना चाहिये और जो उसकी प्राप्ति में हितकारी हो उसका बड़े प्रयत्नसे आश्रय करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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