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द्वितीय अध्याय
[ २५ चिन्तासे अशुद्ध आत्मा होता है, क्योंकि आत्माके अशुद्ध होने में अशुद्धचिद्रूपकी चिंता कारण है ।। २३ ।।
मग्ना ये शुद्धचिपे ज्ञानिनो ज्ञानिनोपि ये । प्रमादिनः स्मृतौ तस्य तेपि मग्ना विधेर्वशात् ।। २४ ।। ___ अर्थ :-जो शुद्धचिद्रूपके ज्ञाता हैं, वे भी उसमें मग्न हैं और जो उसके ज्ञाता होने पर भी उसके स्मरण करने में प्रमाद करने वाले हैं, वे भी उसमें मग्न हैं । अर्थात् स्मृति न होने पर भी उन्हें शुद्धचिद्रूपका ज्ञान ही आनन्द प्रदान करने वाला है ।। २४ ।।
सप्तधातुमयं देहं मलमूत्रादिभाजनं ।
पूज्यं कुरु परेषां हि शुद्धचिपचिंतनात् ।। २५ ।। इति मुमुक्षु भट्टारक ज्ञानभूषणविरचितायां तत्वज्ञान तरंगिण्यां
शुद्धचिद्पध्यानोत्साहसंपादको द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।। ____ अर्थ :---यह शरीर रक्त, वीर्य, मज्जा आदि सात धातुस्वरूप है । मलमूत्र आदि अपवित्र पदार्थोंका घर है, इसलिये उत्तम पुरुषोंको चाहिये कि वे इस निकृष्ट और अपवित्र शरीरको भी शुद्धचिद्रूपकी चिन्तासे दूसरोंके द्वारा पूज्य और पवित्र बनावें ।
भावार्थ :- यह शरीर अपवित्र पदार्थोंसे उत्पन्न अपवित्र पदार्थोका घर है, इसलिये महा अपवित्र है ; तथापि शुद्धचिद्रूरूपके ध्यान करनेसे यह पवित्र हो जाता है, इसलिये शरीरको पवित्र बनानेके लिये विद्वानोंको अवश्य शुद्धचिद्रूपका ध्यान करना चाहिये ॥२५।। इसप्रकार मोक्षाभिलाषी भट्टारक ज्ञानभूषणनिर्मित तत्त्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्धचिद्रूपके ध्यानका उत्साह प्रदान करने वाला
दूसरा अध्याय समाप्त हुआ ।।२।।
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