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________________ २४ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी ऐसी स्मृतिको रखें तब भी वे गुण शुद्धचिद्रूपकी स्मृतिकी तनिक भी तुलना नहीं कर सकते ।। भावार्थ :-यद्यपि संसारमें अनेक उत्तमोत्तम गुण हैं और बे भांति भांतिके सुख प्रदान करते हैं; तथापि ज्ञानदृष्टिसे देखने पर वे शुद्धचिद्रूपकी स्मृतिके बराबर कीमती नहीं हो सकते-शुद्ध चिद्रूपकी स्मृति ही सर्वोत्तम है ।।२१।। तीर्थतां भूः पदैः स्पृष्टा नाम्ना योऽघचयः क्षयं । सुरौधो याति दासत्वं शुद्धचिद्रक्तचेतसां ॥२२॥ अर्थ :-जो महानुभाव शुद्धचिद्रूपके धारक हैं-उसके ध्यानमें अनुरक्त हैं, उनके चरणोंसे स्पर्श की हुई भूमि तीर्थ 'अनेक मनुष्योंको संसारसे तारने वाली' हो जाती है । उनके नामके लेनेसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है और अनेक देव उनके दास हो जाते हैं ।।२२।।। शुद्धस्य चित्स्वरूपस्य शुद्धोन्योऽन्यस्य चिंतनात् । लोहं लोहाद् भवेत्पात्रं सौवर्ण च सुवर्णतः ॥२३॥ अर्थ :-जिसप्रकार लोहेसे लोहेका पात्र और स्वर्णसे स्वर्णका पात्र बनता है, उसीप्रकार शुद्धचिद्रूपकी चिन्ता करनेसे आत्मा शुद्ध और अन्यके ध्यान करनेसे अशुद्ध होता है । भावार्थ :--कारण जैसा होता है वैसा कार्य भी उससे ही पैदा होता है । जिसप्रकार लोहपात्रका कारण लोह है, इसलिये उससे लोहका पात्र और स्वर्णपात्रका कारण स्वर्ण है, इसलिये उससे स्वर्णका ही पात्र बन सकता है। उसीप्रकार आत्माके शुद्ध होने में शुद्ध चिद्रूपकी चिन्ता प्रधान कारण है, इसलिये उससे आत्मा शुद्ध होता है और अशुद्धचिद्रूपकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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