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________________ द्वितीय अध्याय ] [२३ है; क्योंकि वीतराग-शुद्धचिद्रूपका नाम लेनेसे, उनकी स्तुति करनेसे तथा उनकी मूर्ति और मन्दिर बनवानेसे ही जब समस्त पाप दूर हो जाते हैं और अनेक पुण्योंकी प्राप्ति होती है, तब उनके ( शुद्धचिद्रूपके ) ध्यान करनेसे तो मनुष्यको क्या उत्तम फल प्राप्त न होगा ? अर्थात् शुद्धचिद्रूपका ध्यानी मनुष्य उत्तमसे उत्तम फल प्राप्त कर सकता है ।। १९ ।। कोऽसौ गुणोस्ति भुवने न भवेत्तदा यो दोषोऽथवा क इह यस्त्वरितं न गच्छेत् । तेषां विचार्य कथयंतु वुधाश्च शुद्धचिद्रपकोऽहमिति ये यमिनः स्मरंति ॥ २० ॥ अर्थ :-ग्रन्थकार कहते हैं-प्रिय विद्वानों ! आप ही विचार कर कहें, जो मुनिगण - मैं शुद्धचिद्रूप हूँ ' ऐसा स्मरण करने वाले हैं उन्हें उस समय कौनसे तो वे गुण हैं जो प्राप्त नहीं होते और कौनसे वे दोष हैं जो उनके नष्ट नहीं होते अर्थात् शुद्ध चिद्रूपके स्मरण करनेवालोंको समस्त गुण प्राप्त हो जाते हैं और उनके सब दोष दूर हो जाते हैं ।।२०।। तिष्ठंत्वेकर सर्वे वरगुणनिकराः सौख्यदानेऽतितृप्ताः संभूयात्यंतरम्या वरविधिजनिता ज्ञानजायां तुलायां । पार्श्वेन्यस्मिन् विशुद्धा ह्युपविशतु वरा केवला चेति शुद्धचिद्रपोहंस्मृतिौं कथमपि विधिना तुल्यतां ते न यांति ।२१। अर्थ :-ज्ञानको तराजूकी कल्पना कर उसके एक पलड़े में समस्त उत्तमोत्तम गुण, जो भांति-भांतिके सुख प्रदान करने वाले हैं, अत्यन्त रम्य और भाग्यसे प्राप्त हुये हैं, इकठे रखें और दूसरे पलड़ेमें अतिशय विशुद्ध केवल — मैं शुद्धचिद्रूप हूँ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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