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सत्रहवां अध्याय ]
[ १५५ निर्जनं सुखदं स्थानं ध्यानाध्ययनसाधनं । रागद्वेषविमोहानां शातनं सेवते सुधीः ॥ १५ ॥
अर्थः - यह निर्जन स्थान अनेक प्रकारके सुख प्रदान करनेवाला है, ध्यान और अध्ययनका कारण है, राग, द्वेष और मोहका नाश करनेवाला है, इसलिए बुद्धिमान पुरुष अवश्य उसका आश्रय करते हैं ।। १५ ।।।
सुधाया लक्षणं लोका वदन्ति बहुधा मुधा । बाधाजंतुजनैर्मुक्तं स्थानमेव सतां सुधा ॥ १६ ॥
अर्थः-लोक सुधा ( अमृत )का लक्षण भिन्न ही प्रकारसे वतलाते हैं; परन्तु वह ठीक नहीं मिथ्या है; क्योंकि जहां पर किसी प्रकार की बाधा, डांस, मच्छर आदि जीव और जन समुदाय न हो ऐसे एकान्त स्थानका नाम ही वास्तव में सुधा है ।
भावार्थ:- जो सुख देनेवाला हो वही सुधा ( अमृत ) है । शुद्धचिद्रूपके अभिलापियोंको समस्त प्रकारके उपद्रवोंसे रहित एकान्त स्थान सुख का देनेवाला है, इसलिए उनके लिए वही अमृत है और लोककथित अमृत, अमृत नहीं है ।। १६ ।।
भूमिगृहे समुद्रादितटे पितृवने वने ।। गुहादौ वसति प्राज्ञः शुद्धचिद्ध्यानसिद्धये ।। १७ ॥
अर्थः --- जो मनुष्य बुद्धिमान हैं ... हित-अहितके जानकार हैं, वे शुद्धचिद्रूपके ध्यानकी सिद्धि के लिए जमीनके भीतरी धरोंमें, सुरंगोंमें, समुद्र, नदी आदिके तटों पर, स्मशान भूमियोंमें और वन, गुफा आदि निर्जन स्थानोंमें निवास करते है ।। १७ ।।
विविक्तस्थानकाभावात् योगिनां जनसंगमः । तेषामालोकनेनैव वचसा स्मरणेन च ॥ १८ ॥
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