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________________ १५४ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी कारण है-उसके त्यागसे ही शुद्धचिद्रूपका ध्यान हो सकता है, बाह्य पदार्थोंका सहवास न करनेसे ही अपनेको सुखी मानते हैं ।। १२ ।। अवमौदर्यात्साध्यं विविक्तशय्यासनाद्विशेषेण । अध्ययनं सध्यानं मुमुक्षुमुख्याः परं तपः कुर्युः ॥ १३ ॥ अर्थः---जो पुरुष मुमुक्षुओंमें मुख्य हैं । वहुत जल्दी मोक्ष जाना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि वे अवमौदर्य और विविक्तशय्यासनकी सहायतासे निष्पन्न ध्यानके साथ अध्ययन, स्वाध्यायरूप परम तपका अवश्य आराधन करें ! भावार्थः--ध्यान और स्वाध्याय तप तभी सिद्ध हो सकते हैं, जब अवमौदर्य ( थोड़ा आहार करना) और विविक्तशय्यासन तपोंका विशेष रूपसे आश्रय किया जाय; क्योंकि जो मनुष्य गरिष्ठ या भरपेट भोजन करेगा और जनसमुदायमें रहेगा, वह ध्यान और स्वाध्याय कदापि नहीं कर सकता, इसलिए उत्तम पुरुषोंको स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धि के लिए आलस्य न दबा बैठे, इस कारण वहुत कम आहार और एकान्त स्थानका आश्रय करना चाहिए ।। १३ ।। ते वन्द्याः गुणिनस्ते च ते धन्यास्ते विदांवराः । वसंति निर्जने स्थाने ये सदा शुद्धचिद्रूताः ॥ १४ ।। अर्थः-जो मनुष्य शुद्धचिद्रूपमें अनुरक्त हैं और उसकी प्राप्तिके लिए निर्जन स्थानमें निवास करते हैं । संसारमें वे ही वंदनीक सत्कारके योग्य, गुणी, धन्य और विद्वानोंके शिरोमणि हैं अर्थात् उत्तम पुरुप उन्हींका आदर सत्कार करते हैं और उन्हें ही गुणी, धन्य और विद्वानोंमें उत्तम मानते हैं ।। १४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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