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सोलहवाँ अध्याय !
वृश्चिका युगपत्स्पृष्टाः पीडयंति यथांगिनः । विकल्पाश्च तथात्मानं तेषु सत्सु कथं सुखं ॥ १ 。 11
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अर्थः- जिस प्रकार शरीर पर एक साथ लगे हुए अनेक विच्छु प्राणीको काटते और दुःखित बनाते हैं, उसी प्रकार अनेक प्रकार के विकल्प भी आत्माको बुरी तरह दुखाते हैं | जरा भी शांतिका अनुभव नहीं करने देते, इसलिए उन विकल्पों की मौजूदगी में आत्माको कैसे सुख हो सकता है ? विकल्पों के जाल में फँसकर रत्तीभर भी यह जीव सुखका अनुभव नहीं कर सकता ।। १० ।।
बाह्य संगतिसंगस्य त्यागे चेन्मे परं सुखं ।
अन्तः संगतिसंगस्य भवेत् किं न ततोऽधिकं ॥ ११ ॥ अर्थ :- जब मुझे बाह्य संगतिके त्यागसे ही परम सुखकी प्राप्ति होती है तब अन्तरंग संगतिके त्यागसे तो और भी
आदि बाह्य पदार्थों की
पुत्र
अधिक सुख मिलेगा । भावार्थ:- -जब मुझे स्त्री, संगतिके त्यागसे ही परम सुख आदि अन्तरंग पदार्थोंकी संगतिके त्यागसे तो उससे भी अधिक
प्राप्त
होता है, तब रागद्वेष
सुख मिलेगा ।। ११ ।।
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बाह्यसंगतिसंगेन सुखं मन्येत मृढधीः ।
तत्यागेन सुधीः शुद्धचिद्रूपध्यान हेतुना ।। १२ ।।
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अर्थः – जो पुरुष मुग्ध हैं - अपना-पराया जरा भी भेद नहीं जानते । वे बाह्य पदार्थोंकी संगति से अपनेको मुखी मानते हैं, परन्तु जो बुद्धिमान हैं - तत्त्वोंके भले प्रकार वेत्ता हैं, वे यह जानकर कि संगतिका त्याग ही शुद्धचिद्रूपके ध्यान में
त. २०
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