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________________ १५२ ] [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी अर्थः – स्त्री, पुत्र आदिकी चिंता, प्रणियोंके साथ संगति रोग आदिसे वेदना, तीव्रनिद्रा और क्रोध, मान आदि कषायोंकी उत्पत्ति होना मूर्छा है और इस मूच्र्छासे ध्यानका सर्वथा नाश होता है । भावार्थ: स्त्री, पुत्र आदि मेरे हैं । इस प्रकारके परिणामका नाम मूर्च्छा है, इसलिये इससे मनुष्यको नाना प्रकारकी चिंतायें, प्राणियोंके साथ संगति, रोग आदिसे तीव्र वेदना, अधिक निन्द्रा, क्रोध, मान, माया आदि कषायोंकी उत्पत्ति होती है तथा ध्यानका नाश होता है - मूर्च्छित मनुष्य किसी प्रकारका ध्यान नहीं कर सकता ।। ७ ।। - संगत्यागो निर्जनस्थानकं च तवज्ञानं सर्वचिंताविमुक्तिः । निर्बाधत्वं योगरोधो मुनीनां मुक्तयै ध्याने हेतवोऽमी निरुक्ताः ||८|| अर्थः-बाह्य-अभ्यंतर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग, एकांत स्थान, तत्त्वोंका ज्ञान, समस्त प्रकारकी चिताओंसे रहितपना, किसी प्रकारकी बाधाका न होना और मन, वचन तथा कायके वश करना ये व्यानके कारण हैं और इनका आश्रय करनेसे मुनियोंको मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ८ ॥ विकल्पपरिहाराय संगं मुञ्चति धीधनाः । संगतिं च जनैः साद्ध कार्य किंचित् स्मरंति न ॥ ९ ॥ अर्थः- जो मनुष्य बुद्धिमान हैं- स्व और परके स्वरूपके जानकार होकर अपनी आत्माका कल्याण करना चाहते हैं, वे संसार के कारणस्वरूप विकल्पों के नाश करनेके लिये बाह्यअभ्यंतर दोनों प्रकार के परिग्रहका ल्याग कर देते हैं, दूसरे मनुष्योंकी संगति और किसी कार्यका चिन्तवन भी नहीं करते ।। ९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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