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________________ सोलहवां अध्याय । अर्थः-जीवोंके विकल्प-वेड़ी, पर्वत, कीचड़, समुद्र, दावाग्निका संताप, रोग, शीतलता और जालके समान होते हैं, इसलिये उनके नाशके लिये छैनी, वज्र, सूर्य, अगस्त्य नक्षत्र, मेघ, औषध, अग्नि और छरीके समान निर्जन स्थानका ही आश्रय करना उचित है । ___ भावार्थ:-जिस प्रकार बेड़ीके काटनेमें छैनी, पर्वतके खंड करनेमें वज्र, कीचड़के सुखाने में सूर्य, समुद्र के जलको शुष्क करने में अगस्त्य ऋषि, वनाग्निके बुझाने में मेघ, रोगके नाश करने में औषधि, शीतलता नष्ट करने में अग्नि और जालके काटनेमें छुरी कारण है । बिना छैनी आदिके बेड़ी आदिका फन्द कट नहीं सकता, उसी प्रकार विकल्पोंके नाश करने में निर्जन स्थान कारण है । निर्जन स्थानका विना आश्रय किये विकल्प कभी नहीं हट सकते ।। ५ ।। तपसां वाह्य भूतानां विविक्तशयनासनं । महत्तपो गुणोद्भतेरागत्यागस्य हेतुतः ॥ ६ ॥ अर्थः-बाह्य तपोंमें विविक्तशयनासन (एकांत स्थानमें मोना और बैठना ) तपको महान तप बतलाया है; क्योंकि इसके आराधन करनेसे आत्मामें गुणोंकी प्रगटता होती है और मोहका नाश होता है । भावार्थः-अनशन, अवमौदर्य, वत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेशके भेदसे वाह्य तप छै प्रकारका है; परन्तु उन सबमें उत्तम और महान तप विविक्तशयनासन ही है; क्योंकि इसके आराधन करनेसे आत्मामें नाना प्रकारके गुणोंकी प्रकटता और समस्त मोहकी नास्ति होती है ।। ६ ।। काचिच्चिता संगतिः केनचिच्च रोगादिभ्यो वेदना तीव्रनिद्रा । प्रादुभतिः क्रोधमानादिकानां मूर्छा ज्ञेया ध्यानविध्वंसिनी च ॥ ७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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