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________________ १५० } [ तत्त्वज्ञान तरंगिणी इन्द्रो वृद्धौ समुद्रः सरिदमृतबलं वर्द्धते मेघवृष्टेमहानां कर्मबन्धो गद हव पुरुषस्यामभुक्तेरवश्यं । नानावृत्ताक्षराणामवनिवरतले छंदसां प्रस्तरश्च दुःखौधागो विकल्पात्रववचनकुलं पार्श्ववयगिनां हि ॥ ३ ॥ अर्थः - जिस प्रकार चन्द्रमाके संबंधसे समुद्र, वर्षासे नदीका जल, मोहके सम्बन्धसे कर्मबन्ध, कच्चे भोजनसे पुरुषोंके रोग और नाना प्रकारके छन्दके अक्षरोंसे शोभित छन्दोंके सम्वन्धसे प्रस्तार वृद्धित होते हैं, उसी प्रकार पार्श्ववर्ती ( नजदीकवर्ती ) जीवोंके सम्बन्धसे नाना प्रकार के दुःख और विकल्पमय वचनोंकी वृद्धि होती है । भावार्थ:-- जिस प्रकार समुद्रकी वृद्धि में चन्द्रमा, नदीके जलकी बढवारोंमें मेध, कर्मबन्ध में मोह, रोगकी वृद्धि में अपक्व भोजन और छन्दोंकी रचनायें प्रस्तार कारण हैं, उसी प्रकार पार्श्ववर्ती जीवोंका सम्बन्ध नाना प्रकारके दुःखोंके देने और परिणामोंके विकल्पमय करनेमें कारण है, इसलिये कल्याणके अभिलाषियोंको वह सर्वथा वर्जनीय है ।। ३ ।। वृद्धि यात्येधसो बहिर्वृद्धौ धर्मस्य वा तृषा । चिंता संगस्य रोगस्य पीडा दुःखादि संगतेः ॥ ४ ॥ अर्थ :- जिस प्रकार ईन्धनसे अग्निकी, धुपसे प्यासकी, परिग्रहसे चिन्ताकी और रोगसे पीड़ाकी वृद्धि होती है, उसी प्रकार प्राणियोंकी संगतिसे पीड़ा और दुःख आदि सहन करने पड़ते हैं । ४॥ विकल्पः स्याज्जीवे निगडनगजंबालजलधि प्रदावाग्न्याताप प्रगद हिमताजालसदृशः । वरं स्थानं छेत्रीपविरविकरागस्ति जलदागदज्वालाशस्त्री सममतिभिदे तस्य विजनं ॥ ५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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