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सोलहवाँ अध्याय शुद्धचिद्रूपकी प्राप्तिके लिये निर्जन स्थानका उपदेश सद्बुद्धेः पररंजनाकुलविधित्यागस्य साम्यस्य च ग्रन्थार्थग्रहणस्य मानसवचोरोधस्य बाधाहतेः । रागादित्यजनस्य काव्यजमतेश्वेतो विशुद्धरपि हेतुः स्वोत्थसुखस्य निर्जनमहो ध्यानस्य वा स्थानकं ॥ १ ॥
अर्थः--उत्तमज्ञान, परको रंजायमान करनेमें आकुलताका त्याग, समता, शास्त्रोंके अर्थका ग्रहण, मन और वचनका निरोध, बाधा-विघ्नोंका नाश, रागद्वेष आदिका त्याग, काव्योंमें बुद्धिका लगना, मनकी निर्मलता, आत्मिक सुखका लाभ और ध्यान, निर्जन एकान्त स्थानके आश्रय करनेसे ही होता है ।
भावार्थ:-जब तक उत्तम ज्ञान, समता, शास्त्र, ध्यान और उत्तम आत्मिक सुख आदि प्राप्त नहीं होते तब तक किसी प्रकारसे आत्माको शाँति नहीं मिल सकती और उनकी प्राप्ति एकांत स्थानके आश्रयसे ही होती है, इसलिये जो मनुष्य उत्तम ज्ञान आदिके अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे पवित्र और एकांत स्थानका अवश्य आश्रय करें ।। १ ।।
पार्श्ववयं गिना नास्ति केनचिन्मे प्रयोजनं । मित्रेण शत्रणा मध्यवर्तिना वा शिवार्थिनः ॥ २॥
अर्थः-मैं शिवार्थी हूं-अपनी आत्माको निराकुलतामय सुखका आस्वाद कराना चाहता हूं, इसलिये मुझे शत्रु, मित्र और मध्यस्थ किसी भी पास में रहनेवाले जीवसे कोई प्रयोजन नहीं अर्थात् पासमें रहनेवाले जीव, मित्र, शत्रु और मध्यस्थ सब मेरे कल्याणके बाधक हैं ।। २ ।।
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