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________________ १५६ ] | तत्त्वज्ञान तरंगिणी जायते मनसः स्पंदस्ततो रागादयोऽखिलाः । तेभ्यः क्लेशो भवेत्तस्मान्नाशं याति विशुद्धता ॥ १९ ।। तया विना न जायेत शुद्धचिद्रपचिंतनं । विना तेन न मुक्तिः स्यात् परमाखिलकर्मणां ।। २० ।। तस्माद्विविक्तसुस्थानं ज्ञेयं संक्लेशनाशनं । मुमुक्षुयोगिनां मुक्तेः कारणं भववारणं ॥ २१ ।। ॥ चतुःफलं ॥ अर्थः ---एकान्त स्थानके अभावसे योगियोंको जनोंके संघमें रहना पड़ता है, इसलिए उनके देखने, वचन सुनने और स्मरण करनेसे उनका मन चंचल हो उठता है । मनकी चंचलतासे विशुद्धिका नाश होता है और विशुद्धिके बिना शुद्धचिद्रूपका चितवन नहीं हो सकता तथा विना उसके चितवन किए समस्त कर्मोंके नाशसे होने वाला मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता, इसलिए मोक्षाभिलाषी योगियोंको चाहिए कि वे एकान्त स्थानको समस्त दुःखोंका दूर करनेवाला, मोक्षका कारण और संसारका नाश करनेवाला जान अवश्य उसका आश्रय करें ।। १८-२१ ।। इति मुमुक्षु भट्टारक श्री ज्ञानभूषण विरचितायां तत्त्वज्ञान तरंगिण्यां शुद्धचिद्रपलब्ध्यै निर्जनस्थाना श्रयणप्रतिपादकः षोडशोऽध्याय ॥ १६ ॥ इस प्रकार मोक्षाभिलाषी भट्टारक ज्ञानभूपणनिर्मित तत्वज्ञान तरंगिणीमें "शुद्धचिद्रपकी प्राप्तिके लिए निर्जन स्थानके आश्रयका" बतलानेवाला सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001638
Book TitleTattvagyan Tarangini
Original Sutra AuthorGyanbhushan Maharaj
AuthorGajadharlal Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size9 MB
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