________________
पन्द्रहवाँ अध्याय }
प्रादुर्भवन्ति निःशेषा गुणाः स्वाभाविकाश्चितः ।
दोपा नश्यंत्यहो सर्वे परद्रव्यवियोजनात् ॥ १७ ॥ अर्थः---समस्त परद्रव्योंके त्यागसे-उन्हें न अपनानेस आत्माके स्वाभाविक गुण-केवलज्ञान आदि प्रकट होते हैं और दोपोंका नाश होता है ।। १७ ।।।
समस्तकर्मदेहादिपरद्रव्यविमोचनात् ।।
शुद्धस्वात्मोपलब्धिर्या सा मुक्तिरिति कथ्यते ॥ १८ ॥
अर्थः-कर्म और शरीर आदि परद्रव्योंके सर्वथा त्यागसे शुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति होती है और उसे ही यतिगण मोक्ष कहकर पुकारते हैं ।
भावार्थ:--समस्त कर्मोंका नाश हो जाना मोक्ष बतलाया है और वही विशुद्धचिद्रूप है; क्योंकि विशुद्धचिद्रूपकी प्राप्ति समस्त कर्मोके नाशसे होती है, इसलिये विशुद्ध चिद्रूप और मोक्षके नाम में भेद होने पर भी अर्थमें कुछ भी भेद नहीं
अतः स्वशुद्धचिद्रपलब्धये तत्त्वविन्मुनिः ।। वपुपा मनसा वाचा परद्रव्यं परित्यजेत् ॥ १९ ॥
अर्थः -- इसलिये जो मुनिगण भले प्रकार तत्त्वोंके जानकार हैं स्व और परका भेद पूर्णरूपसे जानते हैं, वे विशुद्ध चिद्रूपकी प्राप्तिके लिये मन, वचन और कायसे परद्रव्यका सर्वथा त्याग कर देते हैं---उनमें जरा भी ममत्व नहीं करते ।। १९ ।। दिक्चेलको हस्तपात्रो निरीहः साम्यारूढस्तत्त्ववेदी तपस्वी । मौनी कौंधेभसिंहो विवेकी सिद्धयै स्यात्स्वे चित्स्वरूपेऽभिरक्तः ॥२०॥ __ अर्थः-जो मुनि दिगम्बर, पाणिपाववाले, समस्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org